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लाल कवि

1658 - 1710

छत्रसाल के दरबारी कवि। प्रबंधपटुता, संबंध-निर्वाह और मार्मिक स्थलों के चुनाव में दक्ष। 'छत्रप्रकाश' कीर्ति का आधार ग्रंथ।

छत्रसाल के दरबारी कवि। प्रबंधपटुता, संबंध-निर्वाह और मार्मिक स्थलों के चुनाव में दक्ष। 'छत्रप्रकाश' कीर्ति का आधार ग्रंथ।

लाल कवि का परिचय

मूल नाम : गोरेलाल

लाल कवि का उपनाम 'गोरेलाल पुरोहित' था। इनके पूर्वज आंध्रप्रदेश के निवासी थे। बाद में इनके पूर्वज बुंदेलखंड में जाकर बस गये थे। 1658 ई. में लाल कवि का जन्म हुआ था। छत्रसाल बुंदेला ने लाल कवि को बढ़ई, पठारा, अमानगंज, सगेरा और दुग्धा नामक पाँच गाँव दिये थे। ये दुग्धा में रहने लगे थे और अब भी उनके वंशज वहीं रहते हैं। यदि 'छत्रप्रकाश' की वर्तमान प्रति को आधार मानें तो लाल कवि की मृत्यु तिथि 1710 ई. के आसपास ठहरती है। मिश्रबंधु तथा रामचंद्र शुक्ल ने इनकी मृत्यु 1707 ई. मानी है, जो अशुद्ध है।

इनके लिखे हुए ग्रंथों में 'छत्रप्रशस्ति', 'छत्रछाया', 'छत्रकीर्ति', 'छत्रछंद', 'छत्रसालशतक', 'छत्रहजारा', 'छत्रदंड', 'राजविनोद', 'बरवै' और 'छत्रप्रकाश' की चर्चा की जाती है लेकिन वर्तमान में 'छत्रप्रकाश' के अतिरिक्त इनका कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। 'छत्रप्रकाश' की रचना छत्रसाल की आज्ञा हुई थी और यही ग्रंथ गोरेलाल या लाल कवि की कीर्ति का आधार ग्रंथ है। इसमें 1710 ई. के अंतिम दिनों तक की ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन किया गया है, अतः 'छत्रप्रकाश' का रचनाकाल 1710 ई. ही स्थिर होता है।

यह ग्रंथ 26 अध्यायों में विभक्त है। इसमें न केवल महाराज छत्रसाल के जीवन से संबंधित घटनाओं का वर्णन किया गया है बल्कि 1710 ई. तक की बुंदेलखंड संबंधी छोटी से छोटी घटनाओं का विवरण भी दिया गया है। ऐतिहासिक सत्य की सुरक्षा के प्रति कवि की गहरी निष्ठा के कारण रामचंद्र शुक्ल ने इनकी प्रशंसा करते हुए लिखा है कि "इसमें सब घटनाएँ सच्ची और ब्योरे ठीक-ठीक दिए गए हैं। इसमें वर्णित घटनाएँ और संवत् आदि ऐतिहासिक खोज के अनुसार बिलकुल ठीक हैं, यहाँ तक कि जिस युद्ध में छत्रसाल को भागना पड़ा है उसका भी स्पष्ट उल्लेख किया गया है।" ऐतिहासिक तथ्यों की सजगता के कारण आगे कैप्टन पावसन ने इसका अनुवाद अँग्रेज़ी में किया। 'छत्रप्रकाश' की रचना प्रौढ़ और काव्यगुण-युक्त है। वर्णन की विशदता के अतिरिक्त स्थान-स्थान पर ओजस्वी भाषण हैं। लाल कवि में प्रबंधपटुता पूरी थी। संबंध का निर्वाह भी अच्छा है और वर्णन-विस्तार के लिये मार्मिक स्थलों का चुनाव भी। वस्तु-परिगणन द्वारा वर्णनों का अरुचिकर विस्तार जैसे थोड़े अंतर पर अनेक व्यक्तियों के नामों का उल्लेख, वर्णन-विस्तार-प्रियता और इतिवृत्तात्मकता आदि के संयोग ने उसकी काव्यात्मक सरसता को नीरस ज़रूर बना दिया है। बावजूद इसके इनका सा प्रबंध-कौशल हिंदी के कुछ इने-गिने कवियों में ही पाया जाता है। शब्दवैचित्र्य और चमत्कार के फेर में इन्होंने कृत्रिमता कहीं से नहीं आने दी है। भावों का उत्कर्ष जहाँ दिखाया है वहाँ भी कवि ने सीधी और स्वाभाविक उक्तियों का ही समावेश किया है, न तो कल्पना की उड़ान दिखाई है, और न ऊहा की जटिलता। देश की दशा की ओर भी कवि का पूरा ध्यान जान पड़ता है।

'छत्रप्रकाश' में लाल कवि ने बुंदेल वश की उत्पत्ति, चंपतराय के विजय-वृत्तांत, उनके उद्योग और पराक्रम, चंपतराय के अंतिम दिनों में उनके राज्य का मुग़लों के हाथ में जाना, छत्रसाल का थोड़ी सी सेना लेकर अपने राज्य का उद्धार, फिर क्रमशः विजय पर विजय प्राप्त करते हुए मुग़लों की नाक में दम करना इत्यादि बातों का विस्तार से वर्णन किया है। काव्य और इतिहास दोनों की दृष्टि से यह ग्रंथ हिंदी में अपने ढंग का अनूठा है। इस ग्रंथ में वर्णन की विशदता और वीररस की प्रधानता है। शिल्पगत ढाँचा इसका दोहा तथा चौपाई छंद का है जो ब्रजभाषा के प्रचलित साहित्यिक रूप पर आधारित है। बुंदेली का पर्याप्त प्रभाव है, वहीं अरबी तथा फ़ारसी के प्रयोगों से भाषा और अधिक सजीव हो गयी है। इस प्रकार 'छत्रप्रकाश' साहित्य और इतिहास की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी कृति है। लाल कवि का एक और ग्रंथ 'विष्णु-विलास' है जिसमें बरवै छंद में नायिकाभेद कहा गया है। पर इस कवि की कीर्ति का स्तंभ 'छत्रप्रकाश' ही है।

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