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कुँवर नारायण

1927 - 2017 | फ़ैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश

समादृत कवि-आलोचक और अनुवादक। भारतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित।

समादृत कवि-आलोचक और अनुवादक। भारतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित।

कुँवर नारायण का परिचय

मूल नाम : कुँवर नारायण

जन्म : 19/09/1927 | फ़ैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश

निधन : 15/11/2017 | लखनऊ, उत्तर प्रदेश

समकालीन कविता के समादृत कवि कुँवर नारायण का जन्म 19 सितंबर 1927 को उत्तर प्रदेश के फ़ैज़ाबाद जनपद के अयोध्या में एक संपन्न परिवार में हुआ। उनके परिवार के निकट संपर्क में रहे आचार्य नरेंद्र देव, आचार्य कृपलानी और राम मनोहर लोहिया जैसे व्यक्तियों के प्रभाव में वह गंभीर अध्ययन और स्वतंत्र चिंतन की ओर प्रेरित हुए। वर्ष 1951 में उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से अँग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की और इसी दौरान लखनऊ लेखक संघ की गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी की। रघुवीर सहाय उनके सहपाठी थे। रघुवीर सहाय ने उन्हें अज्ञेय की कविता ‘हरी घास पर क्षण भर’ से परिचित कराया। अज्ञेय की कविताएँ पढ़कर वह हिंदी में कवि कर्म की ओर अग्रसर हुए। 1955 में वह पोलैंड, चेकस्लोवाकिया, रूस, चीन आदि देशों की यात्रा पर गए और इस दौरान वॉर्सा में नाज़िम हिकमत, एंटन स्वानिम्स्की, पाब्लो नेरूदा आदि कवियों से मिलने का विशिष्ट अनुभव पाया। बाद में भी उन्होंने दुनिया के विभिन्न भागों की साहित्यिक यात्राएँ की और हिंदी और विश्व साहित्य के बीच संपर्क सेतु के निर्माण में विशिष्ट भूमिका निभाई। 

1956 में उनका पहला कविता-संग्रह ‘चक्रव्यूह’ प्रकाशित हुआ, जबकि 1959 में अज्ञेय के संपादन में प्रकाशित ‘तीसरा सप्तक’ में शामिल किए गए।  

हिंदी कविता में कुँवर नारायण की उपस्थिति एक विलक्षण प्रतिभा के कवि के रूप में रही है। उनका कविता-कर्म अन्य कवियों से अलग और विशिष्ट है। मुक्तिबोध ने अपने समीक्षा लेख में उन्हें ‘अंतरात्मा की पीड़ित विवेक-चेतना और जीवन की आलोचना का कवि’ कहा था। उनकी कविताओं में परंपरा, मानवीय आशा-निराशा और सुख-दुख का प्रवेश किसी प्रसंग की तरह नहीं आधुनिक जीवन यथार्थ की तरह होता है। 

उनका व्यक्तित्व भी साहित्यिक बिरादरी में आकर्षण का केंद्र रहा है। एक बार उनसे पूछा गया कि कवि होते हुए वे मोटरकार बेचने जैसा अनुपयुक्त काम क्यों करते हैं तो उनका उत्तर था—‘मोटर इसलिए बेचता हूँ कि कविता न बेचनी पड़े’। उनके व्यक्तित्व के गुण उनकी रचनात्मकता में भी प्रकट होते हैं। उनकी शाइस्तगी, सम्यकता, विनम्रता और धैर्य के कारण उन्हें ‘मध्यममार्गी विचारधारा का कवि’ भी कहा गया है, लेकिन यह मध्यममार्ग यथास्थितिवादी नहीं है। 

कविता के साथ ही उनकी रूचि इतिहास, पुरातत्व, सिनेमा, कला, क्लासिकल साहित्य, आधुनिक चिंतन, समकालीन विश्व साहित्य, संस्कृति विमर्श आदि में भी रही। इस रूचि ने उनकी रचनात्मकता को विविधता और बहुलता दोनों सौंपी है। 

उन्हें फ़िल्में और नाटक देखना पसंद रहा। उन्होंने कहा है कि फ़िल्मों का शिल्प उन्हें अत्यंत आकृष्ट करता है। वह फ़िल्मों को एक लंबी कविता की तरह देखते-पढ़ते और अर्थ देते हैं और उन्हें ऐसी फ़िल्में ज़्यादा पसंद आती हैं जिनकी संवेदना और बनावट में कविता की लय और सांकेतिकता हो। तारकोव्स्की उनके प्रिय फ़िल्मकार थे। भारतीय शास्त्रीय संगीत और नृत्य में भी उनकी गहरी रूचि रही। पंडित जसराज, उस्ताद अमीर खाँ साहब, संयुक्ता पाणिग्रही आदि की ऐसी कई प्रस्तुतियों पर उन्होंने अपने भावों को डायरी में दर्ज किया है। प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक सत्यजित रे के साथ उनके गहरे आत्मीय संबंध रहे थे। वे उन कुछ हिंदी लेखकों में से हैं जिन्होंने फ़िल्म समीक्षा पर कार्य किया है। 

उन्होंने कवाफ़ी, बोर्खेस, मलार्मे, नेरूदा, गुंटर ग्रास, तादेउश रोज़विच, ज्बीग्न्यू हेर्बर्त आदि कई विदेशी भाषा कवियों के निबंधों और कविताओं का अनुवाद किया है। उनकी रचनाओं के अनुवाद विभिन्न भारतीय भाषाओं और अँग्रेज़ी, इतालवी, पोलिश, एस्टोनियन आदि विदेशी भाषाओं में हुए हैं। 

उन्हें वर्ष 1995 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार और वर्ष 2008 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 2009 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया। 

प्रमुख कृतियाँ 

कविता-संग्रह : चक्रव्यूह (1956), परिवेश: हम तुम (1961), अपने सामने (1979), कोई दूसरा नहीं (1993), इन दिनों (2002), हाशिए का गवाह (2009)

खंड-काव्य : आत्मजयी (1965), वाजश्रवा के बहाने (2008), कुमारजीव (2015)

कहानी-संकलन : आकारों के आसपास (1971)

समीक्षा और विचार : आज और आज से पहले (1998), मेरे साक्षात्कार (1999, संपादक: विनोद भारद्वाज), साहित्य के कुछ अंतर-विषयक संदर्भ (2003)

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