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जोधराज

रासो काव्य परंपरा के अंतिम कवियों में से एक। प्रबंध काव्य 'हम्मीर रासो' से प्रसिद्ध।

रासो काव्य परंपरा के अंतिम कवियों में से एक। प्रबंध काव्य 'हम्मीर रासो' से प्रसिद्ध।

जोधराज का परिचय

जोधराज नीमराणा (अलवर) के राजा चंद्रभाण चौहान के आश्रित थे। जोधराज का निवास स्थान बीजवास ग्राम था। ये जाति से ब्राह्मण थे। जोधराज काव्य-कला और ज्योतिष-शास्त्र के पूर्ण पंडित थे। इन्होंने अपने आश्रयदाता की आज्ञा से 'हम्मीररासो' लिखा था। जिसमें रणथंभौर के प्रसिद्ध वीर महाराज हम्मीरदेव का चरित्र वीरगाथा-काल की छप्पय पद्धति पर वर्णन किया गया है। हम्मीरदेव सम्राट् पृथ्वीराज के वंशज थे। उन्होंने दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन को कई बार परास्त किया था और अंत में अलाउद्दीन की चढ़ाई में ही वे मारे गए थे।

जोधराज ने 'हम्मीर रासो' की रचना तिथि इस प्रकार दी है :

'चंद्र नाग वसु पंचगिनि संवत् माधव मास।
शुक्ल तृतीया जीव जुत ता दिन ग्रंथ प्रकास।'

टीकमचंद तोमर के अनुसार नाग का अर्थ आठ लेने से जोधराज कथित तिथि 1885 विक्रम वैशाख शुक्ल तृतीया गुरुवार आती है। यह तिथि गणना करने पर खरी उतरती है। स्पष्ट है कि जोधराज ने 'हम्मीररासो' की रचना 17 अप्रैल, 1828 ई. को की थी। मिश्रबंधुओं, श्यामसुंदरदास आदि विद्वानों ने इसकी रचना-तिथि 1728 ई., तथा रामचंद्र शुक्ल ने 1818 ई. मानी है पर ये मत भ्रामक हैं। 'हम्मीररासो' में 969 छंद हैं। ग्रंथ के आरंभ में कवि ने गणेश और सरस्वती की स्तुति, आश्रयदाता तथा अपना परिचय देने के पश्चात् सृष्टि-रचना, चंद्र-सूर्य-वंश-उत्पत्ति, अग्नि-कुल-जन्म आदि का वर्णन किया है। तदनंतर रणथंभौर के राव हम्मीर और अलाउद्दीन के युद्ध का विस्तारपूर्वक चित्रण किया गया है।

जोधराज की रचना पर पौराणिक आख्यानों, 'पृथ्वीराजरासो' तथा 'रामचरितमानस' का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। इन्होंने ऐतिहासिक तथ्यनिरूपण में असावधानी से काम लिया है। काव्य का स्वरूप देने के लिए कवि ने कुछ घटनाओं की कल्पना की है। जैसे महिमा मंगोल का अपनी प्रेयसी वेश्या के साथ दिल्ली से भागकर हम्मीरदेव की शरण में आना और अलाउद्दीन का दोनों को माँगना। यह कल्पना राजनीतिक उद्देश्य हटाकर प्रेम-प्रसंग को युद्ध का कारण बताने के लिए प्राचीन कवियों की प्रथा के अनुसार की गई है। दूसरी ओर हम्मीर के प्रतिद्वंद्वी अलाउद्दीन के पुरुषार्थ को कमतर जताने के लिए उनके हाथ से एक चूहा मरवाकर कवि ने अलाउद्दीन के चरित्र को उपहासास्पद बनाने का प्रयत्न भी किया है।

इस काव्य में मुख्यतः वीर-रस का चित्रण किया गया है किंतु शृंगार, रौद्र और वीभत्स आदि रसों का भी इसमें अच्छा निर्वाह हुआ है। दोहरा, मोतीदाम, नाराच, कवित्त, छप्पय आदि विविध छंदों का प्रयोग हुआ है। इसमें ब्रजभाषा के साहित्यिक रूप के दर्शन होते हैं, पर कहीं-कहीं पर उसने बोलचाल का रूप धारण कर लिया है। फ़ारसी, अरबी आदि के तद्भव प्रयोग भी प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। मुहावरों के प्रयोग द्वारा जोधराज ने अपनी भाषा को अधिक सबल, व्यापक और प्रौढ़ बनाया है। आचार्य शुक्ल के अनुसार "प्राचीन वीरकाल के अंतिम राजपूत वीर का चरित जिस रूप में और जिस प्रकार की भाषा में अंकित होना चाहिए था उसी रूप और उसी प्रकार की भाषा में जोधराज अंकित करने में सफल हुए हैं, इससे कोई संदेह नहीं। इन्हें हिंदी-काव्य की ऐतिहासिक परंपरा की अच्छी जानकारी थी, यह बात स्पष्ट लक्षित होती है।" हिंदी साहित्य में जोधराज का स्थान वीर-रस के उत्कृष्ट कवियों में माना जाता है

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