Guru Govind Singh's Photo'

गुरु गोविंद सिंह

1666 - 1708 | पटना, बिहार

सिक्खों के दसवें और अंतिम गुरु। 'खालसा पंथ' के संस्थापक। 'चंडी-चरित्र' के रचनाकार।

सिक्खों के दसवें और अंतिम गुरु। 'खालसा पंथ' के संस्थापक। 'चंडी-चरित्र' के रचनाकार।

गुरु गोविंद सिंह का परिचय

जन्म : 22/12/1666 | पटना, बिहार

निधन : 07/10/1708 | नांदेड़, महाराष्ट्र

गुरु गोविन्द सिंह सिक्खों के दसवें और अन्तिम गुरु थे। उनका जन्म पौष, सुदी सप्तमी, संवत् 1723 विक्रमी, तदनुसार सन् 1666 ई० में पटना (बिहार) में हुआ था। उनके पिता सिक्खों के नवें गुरु तेगबहादुर तथा माता गूजरी थीं। उनका आरंभिक नाम गोविन्दराय था। उनकी शिक्षा-दीक्षा पटना में ही हुई। माँ ने गुरुमुखी और पिता गुरु तेग बहादुर ने उन्हें शस्त्र-शास्त्र दोनों की शिक्षा प्रदान की। गुरु गोविन्दसिंह को बिहारी और बंगला का भी ज्ञान था।

गुरु गोविन्द सिंह में बचपन से ही अलौकिकता दिखायी देती थी। कश्मीरी पण्डितों को औरंगजेब ने जब मुसलमान बनाना चाहा, तो सब मिलकर गुरु तेगबहादुर के पास आनन्दपुर गये और उन्हें अपनी करुण कहानी सुनायी। उनकी बातों से गुरु तेगबहादुर मौन, उदास और दुखी हो गये। उसी समय नववर्षीय गोविन्दराय उनके पास आये। उन्होंने पिता से उनकी उदासी का कारण पूछा। पिता ने बताया, “पण्डितों पर घोर संकट है। औरंगजेब उन्हें मुसलमान बनाना चाहता है।" गोविन्दराय ने पूछा, "इससे बचने का उपाय क्या है।?" गुरु तेगबहुदर ने उत्तर दिया, "औरगजेब की प्रचण्ड धर्म की द्वेषाग्नि में किसी महान् धर्मात्मा की आहुति ही इससे बचने का उपाय है।" गोविन्दराय तुरन्त बोल उठे, "आपसे बढ़कर कौन धर्मात्मा भारतवर्ष में होगा? आप ही उस अग्नि की आहुति बनिए।" गुरु तेगबहादुर ने समझ लिया कि मेरा पुत्र मेरे न रहने पर गुरु-गद्दी का भार वहन कर लेगा। 1775 ई० में गुरु तेगबहादुर हँसते-हँसने दिल्ली में शहीद हुए। उनकी शहादत से सारा देश थर्रा उठा। गुरु-गद्दी का उत्तरदायित्व अल्पायु में ही गोविन्दराय के ऊपर आ पड़ा। उन्होंने उस समय शक्ति संघटन के लिए हिमालय की शरण ली और वहीं पहाड़ियों में अपना निवासस्थान बनाया तथा २० वर्ष तक ऐकान्तिक साधना की। इस ऐकान्तिक साधना के दौरान उन्होंने कई रचनात्मक कार्य किए, जिनमें फ़ारसी और संस्कृत के ऐतिहासिक-पौराणिक ग्रन्थों का विशद अध्ययन, हिन्दी कवियों को वीर-काव्य लिखने के लिए प्रेरित करना और स्वयं काव्य-रचना करना, घुड़सवारी और तीरन्दाजी में निपुणता प्राप्त करना प्रमुख है।

गुरु गोविन्दसिंह द्वारा ‘खालसा पन्थ’ की स्थापना उनके जीवन की सर्वोपरि सफलता है। उन्होंने बैशाख बदी प्रतिपदा, संवत् 1756, तदनुसार 1699 ई० में आनन्दपुर में केशगढ़ नामक स्थान पर दयाराम, धर्मदास, मुहकमचन्द, साहिबचन्द, और हिम्मत इन पाँच सिक्खों को मृत्युंजयी बनाकर 'सिंह' बनाया और स्वयं उनसे दीक्षा लेकर गोविन्दराय से गोविन्दसिंह बने। उन्होंने कहा कि इन पाँचों सिक्खों में से एक-एक ऐसे हैं, जिन्हें मैं सवा लाख से लड़ा सकता हैं। जिस प्रकार कायरता संक्रामक होती है, उसी प्रकार वीरता भी संक्रामक होती है। गुरु गोविन्द सिंह का यह मन्त्र संजीवनी शक्ति बन गया। उन्होंने 'खालसा पन्थ' को बाह्य दृष्टि से शक्तिशाली बनाने के लिए कुछ सिद्धांत प्रतिपादित किए जो इस प्रकार है : सभी सिक्खों की एक ही जाति है ‘सिंह’, अतः सभी के नाम के आगे 'सिंह' लगाया जाय; सभी एक ढंग से ‘सत् श्री अकाल’ कहकर नमस्कार करें; 'गुरु ग्रन्थ साहिब' के अलावा किसी को न पूजा जाय; 'अमृतसर' एक ही तीर्थ हो; कोई तंबाकू का सेवन न करे; प्रत्येक सिक्ख सिर पर पगड़ी और केश, कंधा, कृपाण, कड़ा और कच्छा धारण करे। इन सिद्धांतों के अतिरिक्त 'वाह गुरुजी का खालसा, वाह गुरुजी की फतेह’ को उन्होंने सामूहिक संबोधन बनाया।

गुरु गोविन्दसिंह ने कई लड़ाइयां लड़ी और सिक्खों के धर्म के व्यावहारिक रूप का आदर्श उदाहरण देश के सामने प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने चार पुत्रों अजीतसिंह, जोरावरसिंह, जुझारसिंह और फतेहसिंह को देश और धर्म की रक्षा के लिए क़ुर्बान कर दिया। उनका नाम धर्मसुधारकों में तो है ही, राष्ट्र उन्नायकों में भी उनका नाम अग्रगण्य है। उनका जीवन संघर्षपय, त्यागमय और सेवामय था। वे निष्काम कर्मयोगी थे। दक्षिण भारत के नदेड़ (हैदराबाद दक्षिण) नामक स्थान पर 1708 ई० में एक पठान ने उन्हें आहत कर दिया था। मरहम पट्टी से अच्छे होने लगे थे, किन्तु धनुष पर तीर का सन्धान करते समय उनके घाव का टाँका टूट गया और वे अपनी देहलीला समाप्त कर ‘ज्योति' में लीन हो गये। उन्होंने गुरु-गद्दी के भावी संघर्षों की भीषणता का अनुमान कर गुरुत्व का समस्त भार 'श्री गुरु ग्रन्थ साहिब' में केन्द्रित कर दिया। 

गुरु गोविन्द सिंह से संबंधित ग्रन्थ ‘दशम ग्रन्थ’ है। दशम ग्रन्थ का विभाजन ‘जापजी’, ‘अकाल उसतत’, ‘विचित्र नाटक’, ‘वार श्री भगउती जी की’, ‘ज्ञान प्रबोध’, ‘चौपाया’, ‘शब्द हज़ारे-रामकली’, ‘सवैया बत्तीस’, ‘शास्त्र नाममाला’, ‘स्त्री चरित्र’, तथा ‘जफरनामा’ और ‘हिकायन’ शीर्षकों में किया गया है। 'जाप साहिब’ में परमात्मा के स्वरूप का वर्णन है। 'अकाल उसतत' में अकाल पुरुष की स्तुति है। ‘विवित्र नाटक' पौराणिक काव्य-रचना है। ‘चण्डी चरित्र' दुर्गा-सप्तशती के आधार पर लिखा गया है। 'ज्ञान प्रबोध' में दान, धर्म एवं राजधर्म का वर्णन है। ‘शास्त्र नाममाला' में शास्त्रों के नाम के माध्यम से परमात्मा का स्मरण है। चौपाई में 'दुलह दई' और 'श्वास वीर्य’ राक्षस के युद्ध का वर्णन है। 'जफरनामा' सन् १७०६ ई० में औरंगजेब को लिखा हुआ पत्र है, जिसमें गुरु गोविन्दसिंह के आदर्शों की व्याख्या है। उनकी वाणी में भक्ति तथा देशप्रेम का अलौकिक वर्णन है।

गुरु गोविन्द सिंह की वाणी में शान्त एवं वीर-रस की प्रधानता है। परमात्मा की स्तुति में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की मन्दाकिनी प्रवाहित हुई है। युद्धों के वर्णन में वीर-रस प्रधान है। रौद्र और वीभत्स रस उसके अंगीभूत हैं। इसमें यों तो सभी अलंकारों के उदाहरण मिल सकते हैं, किन्तु उपमा, रूपक और दृष्टान्त का बाहुल्य है। शब्दालंकारों में अनुप्रास की प्रधानता है। छन्दों की दृष्टि से इसमें विविधता पायी जाती है। छप्पय, भुजंगप्रयात, कवित्त, चरपट, मधुभार, भगवती, रसावल, हरबोलनमना, एकाक्षरी, कवित्त, सदैया, चौपाई, तोमर, पाधड़ी, तोटक, नाराच, त्रिभंगी आदि अनेक छन्द प्रयुक्त हुए हैं। गुरु गोविन्द सिंह की भाषा प्रधानतया ब्रजभाषा है, किन्तु बीच-बीच में अरबी, फारसी और संस्कृत शब्दों की भी प्रचुरता है।

संबंधित टैग

Recitation

जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

पास यहाँ से प्राप्त कीजिए