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अमीर ख़ुसरो

1253 - 1325 | पटियाली, उत्तर प्रदेश

सूफ़ी संत, संगीतकार, इतिहासकार और भाषाविद। हज़रत निज़ामुद्दीन के शिष्य और खड़ी बोली हिंदी के पहले कवि। ‘हिंदवी’ शब्द के पुरस्कर्ता।

सूफ़ी संत, संगीतकार, इतिहासकार और भाषाविद। हज़रत निज़ामुद्दीन के शिष्य और खड़ी बोली हिंदी के पहले कवि। ‘हिंदवी’ शब्द के पुरस्कर्ता।

अमीर ख़ुसरो का परिचय

मध्य एशिया की लाचन जाति के तुर्क सैफ़ुद्दीन के पुत्र अमीर ख़ुसरो का जन्म 1253 ई. में एटा (उत्तरप्रदेश) के पटियाली नामक कस्बे में हुआ था। इनका परिवार चंगेज़ खाँ के आक्रमणों से पीड़ित होकर बलबन (1266-1286 ई.) के राज्यकाल में शरणार्थी के रूप में भारत आ बसा था। इनका वास्तविक नाम अबुल हसन था। ख़ुसरो की माँ एक भारतीय मुसलमान महिला थी। सात वर्ष की अवस्था में ख़ुसरो ने अपने पिता को खो दिया था, किंतु ख़ुसरो की शिक्षा-दीक्षा में बाधा नहीं आयी। अपने समय के दर्शन तथा विज्ञान में उन्होंने विद्वता प्राप्त की। उनकी प्रतिभा बाल्यावस्था से ही काव्योन्मुख थी। किशोरावस्था में उन्होंने कविता लिखना प्रारंभ किया और बीस वर्ष के होते-होते वे कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गए, और कालान्तर में खड़ी बोली के आदि कवि के रूप में स्वीकृत हुए। उनमें कलाकार की उच्च कल्पनाशीलता और अपने समय के उपयुक्त कूटनीतिक व्यवहार-कुशलता थी। उस समय कलाकारों के लिए आजीविका का सबसे उत्तम साधन राज्याश्रय ही था। ख़ुसरो ने भी अपना संपूर्ण जीवन राज्याश्रय में बिताया। उन्होंने ग़ुलाम, खिलजी और तुग़लक़—तीन अफ़ग़ान राजवंशों तथा ग्यारह सुल्तानों का उत्थान-पतन अपनी आँखों से देखा था। आश्चर्य यह है कि निरंतर राज दरबार में रहने पर भी ख़ुसरो ने कभी भी उन राजनीतिक षड्यंत्रों में भाग नहीं लिया जो प्रत्येक उत्तराधिकार के समय अनिवार्य रूप से होते थे। राजनीतिक दाँव-पेच से अपने को सदैव अनासक्त रखते हुए ख़ुसरो निरंतर एक कवि, कलाकार, संगीतज्ञ और सैनिक ही बने रहे। ख़ुसरो की व्यावहारिक बुद्धि का सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि वे जिस आश्रयदाता के कृपा-पात्र और सम्मान-भाजन रहे, उसके हत्यारे उत्तराधिकारी ने भी उन्हें उसी प्रकार आदर और सम्मान प्रदान किया।

सबसे पहले 1270 ई. में ख़ुसरो को कड़ा (इलाहाबाद) के हाकिम अलाउद्दीन मुहम्मद कुलिश खाँ (मलिक छज्जू) का राज्याश्रय प्राप्त हुआ। विरोधी की प्रशंसा में कशीदा लिखने के कारण मलिक छज्जू उनसे अप्रसन्न हो गया और ख़ुसरो को बुगरा खाँ का आश्रय ग्रहण करना पड़ा। जब बुगरा खाँ लखनौती का हाकिम नियुक्त हुआ तो ख़ुसरो भी उसके साथ चले गए। किंतु वे पूर्वी प्रदेश के वातावरण में अधिक दिन नहीं रह सके और बलबन के ज्येष्ठ पुत्र सुल्तान मुहम्मद का निमंत्रण पाकर दिल्ली लौट आए। ख़ुसरो का यही आश्रयदाता सर्वाधिक सुसंस्कृत और कलाप्रेमी था। सुल्तान मुहम्मद के साथ उन्हें मुल्तान भी जाना पड़ा और मुगलों के साथ उसके युद्ध में भी शामिल होना पड़ा। इस युद्ध में सुल्तान मुहम्मद की मृत्यु हो गई और ख़ुसरो बंदी बना लिए गए। ख़ुसरो ने बड़े साहस और कुशलता के साथ बंदी जीवन से मुक्ति प्राप्त की। परंतु इस घटना के परिणाम स्वरुप ख़ुसरो ने जो मरसिया लिखा वह अत्यंत हृदय-द्रावक और प्रभावशाली है। कुछ दिनों तक वह अपनी माँ के पास पटियाली तथा अवध के हाकिम अमीर अली के यहाँ रहे, परंतु शीघ्र ही वे दिल्ली लौट आए। दिल्ली में पुनः उन्हें मुईजुद्दीन कैकबाद के दरबार में राजकीय सम्मान प्राप्त हुआ। यहाँ उन्होंने सन 1289 ई. में ‘मसनवी किरानुससादैन’ की रचना की। गुलाम वंश के पतन के बाद जलालुद्दीन खिलजी दिल्ली का सुल्तान हुआ। उसने ख़ुसरो को ‘अमीर’ की उपाधि से विभूषित किया। ख़ुसरो ने जलालुद्दीन की प्रशंसा में ‘मिफ्त-उल-फ़तह’ नामक ग्रंथ की रचना की। जलालुद्दीन के हत्यारे उसके भतीजे अलाउद्दीन ने भी सुल्तान होने पर अमीर ख़ुसरो को उसी प्रकार सम्मानित किया और उन्हें ‘राजकवि’ की उपाधि दी। अलाउद्दीन की प्रशंसा में ख़ुसरो ने जो रचनाएँ की, वे अभूतपूर्व थीं। ख़ुसरो की अधिकतर रचनाएँ अलाउद्दीन के राज्यकाल की ही हैं। 1298 ई. से 1301 ई. तक की अवधि में उन्होंने पाँच रोमांटिक मसनवियाँ— ‘मल्लोल अनवर’, ‘शिरीन ख़ुसरो’, ‘मजनू लैला’, ‘आईन-ए-सिकंदरी’, और ‘हश्त-विहिश्त’ लिखीं। ये पंच गंज नाम से प्रसिद्ध हैं। ये मसनवियाँ ख़ुसरो ने अपने धर्म-गुरु शेख निजामुद्दीन औलिया को समर्पित की तथा उन्हें सुल्तान अलाउद्दीन को भेंट कर दिया। पद्य के अतिरिक्त ख़ुसरो ने दो गद्य ग्रंथों की रचना की—‘खजाइनुल फतह’, जिसमें अलाउद्दीन की विजयों का वर्णन है और ‘एजाजयेख़ुसरवी’ जो अलंकार ग्रंथ है। अलाउद्दीन के शासन के अंतिम दिनों में ख़ुसरो ने ‘देवलरानी ख़िज़्र खाँ’ नामक प्रसिद्ध ऐतिहासिक मसनवी लिखी।

अलाउद्दीन के उत्तराधिकारी कुतुबद्दीन मुबारकशाह के दरबार में भी ख़ुसरो ससम्मान राजकवि के रूप में बने रहे, यद्यपि मुबारकशाह ख़ुसरो के गुरु शेख निजामुद्दीन से शत्रुता रखता था। इस काल में ख़ुसरो ने ‘नूहसिपहर’ नामक ग्रंथ की रचना की जिसमें मुबारकशाह के राज्य-काल की मुख्य-मुख्य घटनाओं का वर्णन है।

जब ख़ुसरो बंगाल की ओर गए हुए थे, दिल्ली में उनके गुरु शेख निजामुद्दीन की मृत्यु हो गई। इस संबंध में ख़ुसरो का अपने गुरु को समर्पित यह दोहा बहुत प्रचलित रहा है :

‘गोरी सोवै सेज पर, मुख पर डारे केश।
चल ख़ुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देश।’

इस शोक को अमीर ख़ुसरो सहन नहीं कर सके और दिल्ली लौटने पर छह महीने के भीतर ही सन् 1325 ई. में देह त्याग दी। ख़ुसरो की समाधि शेख की समाधि के पास ही बनाई गई है।

शेख निजामुद्दीन औलिया अफ़गान युग के महान सूफ़ी संत थे। अमीर ख़ुसरो आठ वर्ष की अवस्था से ही उनके शिष्य हो गए थे और संभवतः गुरु की प्रेरणा से ही उन्होंने काव्य साधना प्रारंभ की। यह गुरु का ही प्रभाव था कि राजदरबार के वैभव के बीच रहते हुए भी ख़ुसरो हृदय से सूफ़ी संत बन गए। उन्होंने अपने गुरु का मुक्त कंठ से यशोगान किया है और अपनी मसनवियों में उन्हें सम्राट से पहले स्मरण किया है। अमीर ख़ुसरो मुख्य रूप से फ़ारसी के कवि हैं। फ़ारसी भाषा पर उनका अप्रतिम अधिकार था। उनकी गणना महाकवि फिरदोसी, शेख सादी और निजामी फ़ारस के महाकवियों के साथ होती है। फ़ारसी काव्य के लालित्य और मार्दव के कारण ही अमीर ख़ुसरो को ‘हिंदी की तूती’ कहा जाता है। इस संबंध में अमीर ख़ुसरो का एक पद्यांश चर्चित है :

‘च मन तूतिए-हिन्दुम, अर रास्त पुर्सी।
जे मन हिन्दुई पुर्स, ता नाज गोयम।’

अर्थात् ‘मैं हिंदुस्तान की तूती हूँ, अगर तुम वास्तव में मुझसे कुछ पूछना चाहते हो तो हिन्दवी में पूछो जिसमें कि मैं कुछ अद्भुत बातें बता सकूँ।’

अमीर ख़ुसरो ने कुछ रचनाएं हिंदी में भी की थी। उनके नाम से हिंदी में पहेलियाँ, मुकरियाँ, दो सुखने और कुछ ग़ज़लें प्रसिद्ध हैं। इसके अतिरिक्त उनका हिंदी कोश ‘खालिक बारी’ भी इस प्रसंग में उल्लेखनीय है। दुर्भाग्य है कि अमीर ख़ुसरो की हिंदी रचनाएँ प्रमाणिक रूप में प्राप्त नहीं हैं। लोक-स्मृति में निरंतर परिवर्तन होती हुई रचनाएँ आधुनिक रूप में हमारे सामने हैं। स्वर्गीय प्रोफेसर शेरानी तथा कुछ अन्य आलोचक विद्वान इन रचनाओं के संबंध में शंका प्रकट करते हैं परंतु ख़ुसरो की हिंदी कविता के संबंध में इतनी प्रबल लोक परंपरा है कि उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। ख़ुसरो की कविता ‘प्रेम का दरिया’ है; जिसका न केवल व्यावहारिक जीवन के लिए बल्कि सांस्कृतिक और भाषा वैज्ञानिक अध्ययन के लिए भी बहुत अधिक मूल्य है।

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