ज़ैबुन्निसा : दो और कविताएँ

zaibunnisa ha do aur kawitayen

शानी

शानी

ज़ैबुन्निसा : दो और कविताएँ

शानी

और अधिकशानी

     

    एक

    किसकी बद्दुआएँ लग गईं, ज़ैबुन्निसा हमें 
    किस अज़ाब में पड़ गए हम
    सइशाम
    कौन-से फूलदार पेड़ कुनमुनाए थे, ज़ैबुन्निसा
    कि कई बार कलपती थी तुम :
    सुनो ऐसा मत करो, हाथ मत लगाओ इन्हें
    दोनों वक़्तों के मिलते न मिलते
    सो जाते हैं सारे पेड़
    बद्दुआएँ देते हैं छुओ तो

    भला 
    कौन से घोंसले किन गौरइयों के
    हमारे हाथों कब हलाक हुए ज़ैबुन्निसा
    कि बार-बार तुम बिलखती थी :
    अल्लाह, बाम्हन चिड़िया है यह
    हाय लग जाएगी इसकी

    अनजाने में
    किन कच्ची क़ब्रों पर पड़ गए हमारे पाँव
    किन रूहों की बेहुरमती हो गई, ज़ैबुन्निसा
    कि बार-बार दुआ के बहाने तुम मुँह छिपाती थी :
    सलाम, ऐ क़ब्र में सोनेवालो

    हमारे गुनाह माफ़ करना
    ख़ुदा तुम्हें बख़्शे
    तुम पहले गए
    हम बाद में आने वाले हैं

    दो

    कहाँ क्या टूट-फूट गया ज़ैबुन्निसा
    चलो अपने कपड़े उतारें
    रूह में उतरें
    पहचानें उन परछाइयों को
    जादुई परिंदा जिन्हें फेक गया था
    जाल की तरह हमारे भीतर, बिल्कुल चुपचाप

    शायद तुम नहीं जानती ज़ैबुन्निसा
    जन्म से ही नज़रबंद हैं हम
    सवार हैं दो-दो फ़रिश्ते हम पर
    हर पल हमारा हिसाब लिखते हुए, हवा में

    एक दिन एक नदी नगर से निकली थी ज़ैबुन्निसा
    ज़ौम में आकर छलाँग तो लगा दी थी हमने
    लेकिन उसे ही चरका दे दिया था जिसके हमसाये थे हम
    हाथ-पाँव मार रहा था तो बहाव से बरअक्स
    और नदी बहा ले गई थीं हमें
    बिल्कुल बेआवाज़

    इबलीस, बाएँ फ़रिश्ते ने लिखा था उस दिन
    कलमे की उँगली से, हवा में।

    ज़ैबुन्निसा,
    एक शाम एक जवान औरत बच्चा जन रही थी
    सरेराह और दिन-दिवाले
    अधनंगी और लहूलुहान
    जोश में पहुँचे भी थे हम तुम
    लेकिन सफ़ेद हो गया लहू हमारा अचानक

    दिल्ली, बाएँ फ़रिश्ते ने लिखा था उस दिन
    कलमे की उँगली से, हवा में।

    ज़ैबुन्निसा, उस दिन त्रिलोकपुरी थे हम
    अभी-अभी नगर बनी थी वह
    नागराकें ने हरे भरे पेड़ ज़ब्ह किए थे उस दिन
    और आदमी की तरह भूना जा रहा था उन्हें
    आदिम उत्सव में

    पता नहीं फ़रिश्तों ने क्या लिखा था उस दिन

    इससे पहले कि छपती आँख में वह इबारत
    एक जादुई परिंदा उतरा आसमान से
    और एक-एक हर्फ़ समेट-सा गया
    तिनकों की मानिंद हवा में
    मत रोओ प्यारी ज़ैबुन्निसा
    चलो उस जादुई परिंदे की पहचानें
    वो यहीं कहीं होगा दुबका हुआ
    रूप धर कर
    हमारे ही आस-पास।

    स्रोत :
    • पुस्तक : साक्षात्कार 197-198 (पृष्ठ 68)
    • संपादक : ध्रुव शुक्ल
    • रचनाकार : शानी

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए