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व्यवस्था

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विश्वंभरनाथ उपाध्याय

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और अधिकविश्वंभरनाथ उपाध्याय

    वह अतिक्रमणशील पतंग

    जब नभ-गंगा के तट पर थी

    तब अचानक उसने अपनी डोर मुझे थमा दी थी

    मैं खींचते रहने के लिए निर्देशित था

    वह शून्य में भटकते रहने के लिए!

    मन में बार-बार बुख़ार उगा

    कि अपनी तरंग-कल्लोल से उसके किनारे छुऊँ

    वह हृदय-ग्रंथि तलाशूँ

    जो खुलने नहीं देती उसकी बंद वादियाँ

    वह अनखुदे ख़ज़ाने-सी

    अपनी समृद्धियों से अनजान

    लांछित होती रहती है उत्खनक दृष्टियों में

    कि वह वसुंधरा नहीं, उजाड़ ऊसर है!

    मैं उसे टेरता था, उस पारावती को

    अपने दर्द के दाने बिखेर-बिखेर कर

    पर नहीं, वह फरफराती रही, ऊपर ही ऊपर

    कल्पनामयी, निरीह, खगी

    मैं दूरागत उसका सबद सुनता था

    और सिर धुनता था!

    हम, समानांतर ही रहे सदैव

    फंतासियों के फुँदने निकालते रहे अलग-थलग

    फिर एक दिन वह मेरे हाथ से रस्सी काटकर

    ससीम हो गई किसी चिड़ीमार के पिंजड़े में

    उसने पढ़ाए गए पाठ दुहराए

    एक मिठास रची उसने आस-पास

    और सर्वत्र स्वीकृति के स्वाद में वह अर्पित हो गई

    एक प्रदत्त जड़ मूर्ति को

    एक और हीरा कुट गया

    व्यवस्था की खरल में

    अब तो चूरा है शेख़ उसका

    जो चमक रहा है दूर से

    हम भस्म को माथे पर मले हुए

    मैं एक और हत्या का गवाह

    बयान दे रहा हूँ खड़ा

    जाने किस क़ातिल कटघरे में

    एक लाश-सी लदी है मेरे ऊपर

    और मैं उन्मत्त भैरव-सा

    घूम रहा हूँ अचेत

    समूचे जंबू द्वीप में

    किससे फ़रियाद करूँ?

    कब तक याद करूँ?

    स्रोत :
    • पुस्तक : निषेध के बाद (पृष्ठ 100)
    • संपादक : दिविक रमेश
    • रचनाकार : विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
    • प्रकाशन : विक्रांत प्रेस
    • संस्करण : 1981

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