स्तोभक्रिया माने बोलना अर्थहीन शब्दों के बोल
सुनयनी!
किसी सुगम संकोच में सुनयना तो नहीं कहूँगा तुम्हें
कि संबोधन
कुछ पुरुष-प्रति नहीं लगता क्या
और उर्दू की
इस अप्राकृतिक व्यंजना का मैं क़ायल नहीं रहा
तुम्हारे नाम हैं कई एक और सटीक नाम देता हूँ मेरी अनामिका!
छिले सिंघाड़े-सी अपनी आँखें दो सुडौल और तुर्श न करो
न चिढ़ो इस उपमा से कि स्वाद इसका मुझे तृप्त करता है
सुनो ना
तनुश्री दत्ता को देखा है और उसकी आँखें
तुमसे ईर्ष्या करती हैं
नहीं नहीं मेरी अनुपमा!
कोई तुलना नहीं कर रहा
कि तुम तो संपूर्ण निष्णात
आंगिक वाचिक सात्विक और आहार्य से हर प्रकार
और उसे
अभिनय का क ख ग तक नहीं मालूम मेरी रंगोत्तमा!
देखो न
मैंने तुम्हें एक और नाम दिया
इसी नाम के नेपथ्य में
मध्यतल में
अड्डिता ध्रुवा का गान करना चाहता हूँ
चतुरश्र ताल और चार सन्निपात के साथ जैसे
शिव ने पार्वती के संग कभी क्रीड़ा में किया था
न न शास्त्र नहीं बखान रहा
कि यही तुम्हारा रंग है गंभीर सहज और स्वाभाविक
पर तुम हो कि शकीरा पर क्रेज़ी
मान जाओ
कि तुम मेरे ज़ेहन में ज़िद-सी प्रतिष्ठित हो
इसी एक ज़िद का श्वेत-श्याम मौन
बरस रहा है धारासार
चार मुट्ठियों में छतरी सँभालते बहुविध
नरगिस राजकपूर की आर्द्र नज़रों से एक पारंपरिक चीत्कार-सा
दृश्य में जो चमक रही हैं ज़्यादा
वे रोशनियाँ कृत्रिम हैं निरी नक़ली
दंभ का अकबरनुमा पृथ्वीराज
काँप रहा है थरथर अपनी कुल-मर्यादा समेत
उसकी फूलती हुईं साँसें फड़फड़ाती पुराने पन्ने की तरह
उनका चिंदी-चिंदी दरकना सुनो, बल मिलेगा
इसी, इसी बल से हुई है जलधार नीली जैसे आसमान
जो छतरी की नोकों से टपक रहा है
अर्पणा कौर की ‘आवारा’ पेंटिंग में और
दोनों कैसा तो सिहरते आधे-आधे
भीग रहे हैं
उठी जाती एड़ियों और आतुरता की पुकार और साँसों से मिलाओ सुर—
'प्यार हुआ इक़रार हुआ है
प्यार से फिर क्यों डरता है दिल'
अब यह जो फिक्क-सी हँसी है तुम्हारी ग़लती नहीं है
नहीं मालूम मंज़िल को जाता मुश्किल रास्ता
जो भटक-भटक गया है धूम-धड़ाम और धाँय
और उद्दाम सीन से भरे दौर में
नहीं नहीं तुम्हारी ग़लती नहीं है पूरी पूरी जो तुम्हें
जनहित में ज़ारी एक विज्ञापन याद आ रहा है
तुम्हारी हँसी एक फिक्क-सी अनगढ़
मेरी नसों की ज़रूरत में बह रही है जिगर की जानिब
मेरी नीलशिरी!
हमारी संपदा है अतृप्ति सुरक्षित करना चाहता हूँ
हाल-फ़िलहाल
हम स्मृतियों की परंपरा में भीग रहे हैं आधे-आधे
एक जर्जर छतरी तले अंधड़ और बरसात से जूझते
एक साथ इस विराट दुनिया में दूभर समीपता के बरअक्स
एक सीन भर ही सही ग़नीमत कम नहीं है
हम जो अंतरंग सीन में बुदबुदाते रहे बाज़ दफ़ा
संकटों की सरगम एक दूसरे को हाज़िर-नाज़िर मानकर
लेते रहे आह भर आलाप
आरोह-अवरोह से साधते ही रहे
जिनगी की ठुमरी बिना किसी बंदिश
उसका अर्थ कौन बूझ सकेगा भला हमारे तुम्हारे सिवा
अरे कितना तो मधुर
कितना तो नया
जैसे रागों में सरगम अर्थहीन!
- पुस्तक : बारिश मेेरा घर है (पृष्ठ 142)
- रचनाकार : कुमार अनुपम
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2012
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