जाते हुए
उसने पलटकर नहीं देखा
उसकी पीठ पर लगी आँखें मेरी
मुझ ही को देखती रहीं
जाते हुए
विदा में
मेरा ही हिस्सा चला जाता है
कहकर विदा मुझे
और फिर पलटकर नहीं देखता
कहने को गुज़र रहा है समय
कैलेंडर बदल रहा
कहने को मौजूद हूँ हर उस जगह
जहाँ पुकारा जाता है मुझे
अगर देख ले कोई बैठ कर
क़रीब से मुझे और समय को
तो उसे मैं खड़ी नज़र आऊँगी
किसी स्टेशन पर
डबडबाई मेरी आँखें आज भी
टिकी नज़र आएँगी
उस लौटती हुई आकृति पर
जो आँखों ही से निकाल ले जा रही है
प्राण मेरे
देख रही हूँ ख़ुद को आज भी
अपनी उन्हीं आँखों से
जो उसकी पीठ से लगी
देख रही है मुझे लौटते हुए वहाँ से
कैलेंडर की गिनती हवा हो जाएगी
समय उस दृश्य के क़रीब
चक्कर लगाता महसूस होगा आज भी
बिना उसके
मेरा बढ़ती तारीख़ों से जुड़े रहना
एक फ़रेब है आज भी
उस रोज़
मैंने अपनी ही आँखों से देख लिया
विदा होते ख़ुद को
तुम्हारे लौट आने के इंतज़ार में
ये आँखें
मुझ ही पर बनी रहती है
तुम्हें आता देख दूर से
जो मैं सँवरने लगती हूँ
कभी-कभी
ये आँखें देख लेती हैं
लौटते हुए मुझ ही को
तुम्हारे बहाने से।
- रचनाकार : ममता बारहठ
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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