भीतरक कोठली
घुप अन्हारमे हेरायल अछि।
सीढ़ी उतरैत कोनो मनुष्य
ओंघरा कऽ ओही अंधकारमे
माथ फोड़ने घायल पंजपर रेँगैत
खिड़की हथोड़ि रहल अछि
अपनहि शोणितक पिच्छड़सँ
बेरि-बेरि उठैत-खसैत
कानो द्वार ताकि रहल अछि।
आखिर, हारि कऽ
स्वयंकेँ घूसैत ओही सीढ़ी सभकेँ
चढ़ि जाय चाहैत अछि,
मुदा सीढ़ीयो
जे अहाँ लगा रखने रही
एखन हटा लेने छी।
अहाँक हँसीपर ओ पाथर फेकऽ चाहैत अछि,
किन्तु अहाँ ओकरा
शोशाक घरमे गहींर घऽ देलियैक अछि।
अहाँक हँसी कतेक कारी अछि?
ओकर आँखि आँखि नहि रहलैक,
ओकर स्वयं स्वयंक नहि रहलैक,
ओकरा अन्हारक,
नहि फिरि सकै वाली स्थितिक,
कारी शीशाक देवालक
हाथमे ठहरल अवेश आक्रोशक पाथर
या कारी हँसीक
अहाँक
भऽ कऽ
रहऽ
पडतैक...
जानि नहि कतेक आन्हर युग तक!
- पुस्तक : मैथिलीक नव कविता (पृष्ठ 145)
- संपादक : रामकृष्ण झा ‘किसुन’
- रचनाकार : गंगेश गुंजन
- प्रकाशन : सांस्कृतिक विभाग, सुपौल, बिहार
- संस्करण : 1971
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.