ऊब
uub
हुआ यह है कि मैं अपने इस आदमी होने से ऊब गया हूँ
यूँ मैं दर्ज़ियों की दुकानों में जाता हूँ फ़िल्मों में जाता हूँ
पर यह सब इतना नीरस, इतना छिछला मालूम पड़ता है
जैसे एक ऊनी नमदे का राजहंस आदिम चेतनाओं और
ख़ुश्क राख की ढेरी पर तैर रहा हो।
बाल काटने की दुकानों से उठती गंध से मेरी आँख में
आँसू छलक आते हैं
मैं पत्थरों और ऊनी कपड़ों से भी छुटकारा पाना चाहता हूँ
ये मकान, ये दुकानें, बाग़-बग़ीचे, एलीवेटर, ये धूप के चश्मे
चाहता हूँ यह सब मेरी निगाह से दूर हो जाएँ
हुआ यह है कि मैं अपने पावों, अपने नाख़ूनों, अपने बालों
और अपनी परछाहीं तक से ऊब गया हूँ
हुआ यह है कि मैं अपने आदमी होने से ऊब गया हूँ।
फिर भी इसमें काफ़ी मज़ा आवे अगर किसी
बड़े आदमी को पटाख़ा छोड़कर डरा दूँ
या किसी भगतिन बुढ़िया को नदी में ढकेल दूँ
या एक हरा छुरा लेकर चीख़ता हुआ पागलों-सा
सड़क पर दौड़ूँ जब तक कि ठंड के मारे अकड़ न जाऊँ।
मुझे लगता है कि मैं अँधेरे पातालों में धसने वाली एक जड़ हूँ
काँपती हुई, बिखरती हुई, नींद में झूमती हुई
धरती की अनजान गुफाओं में भटकती हुई
उम्र का हर दिन चबाती हुई, चिंतामग्न, चेतनाहीन!
और मैं यह नहीं चाहता
मैं अपने सर पर इतनी चिंताएँ नहीं चाहता
न मैं जड़ बनना चाहता हूँ न समाधि
पाताल में, मुर्दों के बीच में बिलकुल अकेले
चिंता से मरणशील ठंड से संज्ञाहीन
इसीलिए हर सोमवार मिट्टी के तेल की तरह जलने लगता है
जब वह देखता है कि मैं क़ैदियों-सा चेहरा बनाए आ रहा हूँ
पिचके पहिए की तरह वह पथ पर चलते हुए कराहता है
और अँधेरी रात में ख़ून-सने क़दम रखता चला जाता है
और मुझे खींच ले जाता है, कुछ अँधेरे कोनों, कुछ सील-
भरे मकानों में
अस्पतालों में जहाँ खिड़कियों की राह से कंकाल बाहर फेंक
दिए जाते हैं
जूते की दुकानों में जहाँ सिरका महकता है
सड़कों पर जो दरारों से ज़्यादा ख़तरनाक हैं
गंधक के रंग की चिड़ियाँ मिलती हैं
और दरवाज़ों पर टँगी हुई गंदी आँतें जिनको देखकर
मितली आती है
काफ़ी के प्यालों में भूल से छूटे हुए नक़ली दाँत
कद्देआदम आइने जो शर्म और डर से रोए हैं
जिनमें मोर्चा लग गया है
हर जगह छाते हैं, ज़हर है, नालियाँ हैं
मैं हर तरफ़ आता-जाता हूँ, मेरे क़दमों में स्थिरता है
मेरे चेहरे में आँखें हैं
मेरे पाँवों में जूते हैं, मेरे दिल में ग़ुस्सा है, मेरे माथे में
खोखलापन है
मैं आगे बढ़ता हूँ, दफ़्तरों में से, दुकानों में से
आँगनों में से, जहाँ तार पर कपड़े सूख रहे हैं
बनियाइनें, तौलिया, क़मीज़ें
जो रोते हैं—मैल के गंदे पिघले हुए आँसुओं में
- पुस्तक : देशान्तर (पृष्ठ 196)
- संपादक : धर्मवीर भारती
- रचनाकार : पाब्लो नेरूदा
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
- संस्करण : 1960
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