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जगि रहे बापू केर सपन

jagi rahe bapu ker sapan

श्यामसुंदर मिश्र 'मधुप'

श्यामसुंदर मिश्र 'मधुप'

जगि रहे बापू केर सपन

श्यामसुंदर मिश्र 'मधुप'

और अधिकश्यामसुंदर मिश्र 'मधुप'

    जगि रहे बापू केर सपन,

    महक उठे खेतवा, लहकि उठे रेतवा,

    चमक उठीं कलियाँ, गमक उठीं गलियाँ,

    मिटि गइ जियरा केरि तपन,

    जगि रहे बापू केरि सपन।

    भागि गे बिदेसिया, जागि गे स्वदेसिया,

    टूटी हथकड़ियाँ, आई सुभ घड़ियाँ,

    सजनियाँ! अब हइ देसु अपन,

    जगि रहे बापू केर सपन,

    सबइ रे सजनवा, करइँ भजनवा,

    सिक्खि किरिसतनवा, हिन्दु-मुसलमनवा,

    लगे रहमनवा, राम जपन,

    जगि रहे बापू केर सपन।

    स्रोत :
    • पुस्तक : घास के घरउँदे (पृष्ठ 60)
    • रचनाकार : श्यामसुंदर मिश्र ‘मधुप’
    • प्रकाशन : आत्माराम एण्ड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली
    • संस्करण : 1991

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