बेरोज़गारी
यद्यपि तमाम महान चिंताओं में इसका शुमार नहीं था कि हम क्या कर रहे हैं आजकल किंतु थे कुछ जो अहर्निश चिंतित रहते हालचाल पूछते कि क्या कर रहे हो आजकल पूछते और अक्सर पूछते थे और पूछते हुए उनके भीतर तथाकथित सांसारिक सुविधाएँ लपक लेने का गर्व लड्डू-सा फूटता था और अपने कौशल पर मुग्ध थे वे कि जिसके कारण उन्हें बैंक बैलेंस और कालगर्ल-सी ख़ूबसूरत एक मादा और ऐशगाह-सी कोठी नसीब हुई कि डूबे हुए सुख में वे किसी जज की तरह देखते थे हमारे आर-पार जैसे बेरोज़गारी सबसे बड़ा अपराध है इस दौर का और कुछ तो करना ही चाहिए का फ़ैसला देते यह बूझते हुए भी कि कुछ करने के लिए ज़रूरी है और भी बहुत कुछ, बात को साइकिल के पहिए की तरह घुमा देते थे कि भई, कमाने के लिए कुछ करना तो बहुत ज़रूरी है और धन के एक आलीशान सोफ़े में धँसते हुए कि ‘इधर देखो, जो आज यहाँ हैं हम’, जैसे सफलता जो दरअसल कोई राज़ नहीं थी, को राज़ की तरह बताने की कृपा करते हुए हमारी कर्मण्यता को ललकारते थे सफल आदमी की बात में लोग हाँ में मूँड़ हिलाते और हमारे प्रति उनकी हिक़ारत शाश्वत चिंता की बू की तरह फैल जाती थी दसों दिशाओं में फिर तो लोग कहने पर मजबूर हो जाते थे पुन: कि कुछ न कुछ तो करना ही चाहिए, नाकारो!
हम कुछ क्यों नहीं कर पा रहे तमाम महान संसदीय चिंताओं की मानवीय जैविकी में इसका शुमार ही नहीं था।
- पुस्तक : बारिश मेेरा घर है (पृष्ठ 21)
- रचनाकार : कुमार अनुपम
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2012
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