आज मैं देखती रह गई पश्चिम दिशा में
अस्ताचल में समाते सूर्य को
सुर्ख़ लाल आग के गोले-सा
एकटक निहारती रही उस गुड़हल के पेड़ तले
खड़े होकर
जहाँ आस-पास ज़मीन में गुलाब की क्यारियाँ है
जिसमें खिले हैं
दिसंबर के महीने में सुर्ख़ लाल गुलाब
लेकिन इन सबसे बेफ़िक्र थी
इनसे ही नहीं पूरी दुनियाँ से
बेपरवाह होकर
मैं टकटकी लगाए देखती रही
ना जाने कितनी ही देर तक
यूँ ही
आँख से कब बह उठे आँसू ख़बर ही नहीं
दिल में ना जाने कैसी टीस-सी उठी
तड़प उठी दर्द से
उस सूर्य को देखते हुए
जो नज़र आ रहा था माथे की टिकुली की तरह सुर्ख़
मैं उसे अपने माथे पर सजाने को मचल पड़ी
देखो कितना हल्का हो गया बदन
कैसे हाथ लहराने लगा हवा में
पहुँच गया उस तक
छुटा कर आसमाँ से सज़ा लिया अपने माथे पर
लो दमक उठा माथा
चमक गया अंग-अंग
सुनो प्रिय तुम्हें अपने माथे पे सज़ा लिया है
दूर से साफ़-साफ़ दिखने लगे हो तुम
क़िस्मत बना लिया है तुम्हें अपनी
तुम्हारा मेरे माथे को चूमना ही
झिलमिला उठना है सूर्य का
मेरे माथे पर टिकुली की तरह!
- रचनाकार : सीमा असीम सक्सेना
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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