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स्वप्नगाथा

svapngatha

अनुवाद : सुरेश सलिल

फेदेरीको गार्सिया लोर्का

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    हरी, कितनी चाहना है मेरी कि तुम हरी ही रहो,

    हरी हवा हरी शाखें।

    सागर के सीने पर पोत

    और पर्वत की गोद में घोड़ा।

    कटि पर पड़ती परछाई के साथ

    वह अपने बारजे पर सपने में खोई है,

    हरी देह लटें हरी

    और आँखें ठंडी चाँदी-चढ़ी।

    हरी, कितनी चाहना है मेरी कि तुम हरी ही रहो।

    बनजारा चाँद की चाँदनी में

    सभी चीज़ें उसे निहारती हुई,

    लेकिन वह उन्हें देख नहीं सकती।

    हरी, कितनी चाहना है मेरी कि तुम हरी ही रहो।

    हिम-तुषार के भव्य तारक

    उगते हैं अँधेरे की मछली के साथ

    जो भोर की राह उजागर करती है।

    अंजीर का दरख़्त अपनी टहनियों के रेगमाल से

    रगड़ता है हवा को

    और पर्वत, एक चोट्टा बिल्ला

    चुभोता है अपनी कँटीली झाड़ियाँ।

    लेकिन कौन आएगा? और कहाँ से?

    वह अटकी है अपने बारजे पर,

    हरी देह लटें हरी,

    दुखदायी सागर के सपनों में खोई।

    दोस्त, तुम्हारे घर तक पहुँचने के लिए

    मैं अपना घोड़ा बदलना चाहता हूँ

    तुम्हारे आइने के लिए अपना ज़ीनबाखर

    अपना छुरा तुम्हारे ओढ़ना के लिए।

    दोस्त, काब्रा घाटियों से मैं

    ख़ून टपकता रहा हूँ।

    —अगर मैं जवान होता

    तो यह राज़ीनामा पक्का हो सकता था।

    लेकिन मैं अब वह मैं नहीं रहा

    मेरा घर ही अब मेरा घर रहा

    —दोस्त, मैं अपने बिस्तर पर

    मर्यादित ढंग से मरना चाहता हूँ।

    अगर संभव हो तो महीन गाढ़े की चादर-बिछे

    लोहे के पलँग पर।

    तुम्हें क्या मेरी छाती से गले तक फैला

    ज़ख़्म नज़र नहीं रहा?

    —तुम्हारी सफ़ेद क़मीज़ पर

    तीन सौ काले गुलाब खिले हुए हैं।

    तुम्हारे बदन को लपेटे दुपट्टे से

    तुम्हारा तिलमिलाहट-भरा ख़ून रिस रहा है।

    लेकिन मैं अब वह मैं नहीं रहा

    मेरा घर ही अब मेरा घर रहा।

    —कम-अज-कम इन ऊँचे जंगलों तक तो

    चढ़ आने दो मुझे :

    जाने दो! जाने दो न!

    ऊपर, उन जंगलों पर

    गूँजता है जहाँ पानी का मरमर।

    जाते हैं अब दो दोस्त ऊपर

    ऊँचे जंगलों के रुख़,

    छोड़ते हुए ख़ून की एक लकीर

    एक लकीर आँसुओं की छोड़ते हुए।

    छतों पर थरथराती हुई

    छोटी-छोटी टीन की लालटेनें।

    एक हज़ार बिल्लौरी खँझड़ियाँ

    भोर को बेधती हुई।

    हरी, कितनी चाहना है मेरी कि तुम हरी ही रहो,

    हरी हवा हरी शाखें।

    दो दोस्त गए ऊपर।

    दमफुलाऊ हवा छोड़ती हुई मुँह में

    माजूफल पुदीना और मीठी तुलसी का एक अजीब स्वाद।

    दोस्त, कहाँ है वह, कहो; कहाँ है तुम्हारी वह मिर्ची?

    कितना वह तुम्हारा इंतज़ार करती थी!

    कितना उसने तुम्हारा इंतज़ार किया

    ठंडे चेहरे और काले केशों के साथ

    इस हरे बारजे पर!

    हौज़ के मुँह से परे डोलती हुई

    वह बंजारन लड़की।

    हरी देह लटें हरी

    और आँखें ठंडी चाँदी-चढ़ी

    चंद्रमा की एक हिमवर्तिका

    लटकाए हुए है उसे पानी की सतह से परे।

    रात किसी छोटे नुक्कड़ जैसी अंतरंग हो उठी।

    नशे में धुत् सिविलगार्ड दरवाज़े पर दस्तकें दे रहे थे।

    हरी, कितनी चाहना है मेरी कि तुम हरी ही रहो।

    हरी हवा हरी शाखें।

    सागर के सीने पर पोत

    और पर्वत की गोद में घोड़ा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रोशनी की खिड़कियाँ (पृष्ठ 164)
    • रचनाकार : फेदेरीको गार्सिया लोर्का
    • प्रकाशन : मेधा बुक्स
    • संस्करण : 2003

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