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धूप का देवता

dhoop ka devta

इवान बुनिन

इवान बुनिन

धूप का देवता

इवान बुनिन

और अधिकइवान बुनिन

    काली बकरियाँ चराती थी मैं अपनी बहन के संग-संग;

    वे गेरुई चट्टानों के पास चर रही थीं। घास कड़ी थी और

    चुभती थी! पहाड़ियों की तलहटी में बड़े-बड़े ढोंके

    पीठ सेंकते हुए आराम से सो रहे थे

    और खाड़ी स्वच्छ नीली चमक रही थी

    मैं एक जैतून की छाँह में सोई थी :

    उसके उलझे हुए रूपहले आच्छादन

    में मेरे उनींदे अंगों पर वह

    आया, मकड़ी के तप्त जाले की तरह

    या मधुमक्खियों के गुनगुनाते हुए

    बादल की तरह…मेरे चारों ओर

    उसने मेरे घुटने खोल दिए

    मेरे पाँव जैसे सुलग उठे

    उसकी श्वेत लपटें मेरे

    कुर्ते पर चाँदी के रंग में सुलग

    उठीं। उसका कसमसाता हुआ

    आलिंगन, भारी और मीठा…

    उसने मुझे पीठ के बल लिटा दिया

    आकाश औंधा लगने लगा...

    मेरे निरावृत्त वक्ष को कुचाग्रों तक

    ताम्रवर्णी बना दिया...

    स्रोत :
    • पुस्तक : देशान्तर (पृष्ठ 428)
    • संपादक : धर्मवीर भारती
    • रचनाकार : इवान बुनिन
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
    • संस्करण : 1960

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