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सुनो हे शेषनाग

suno he sheshanag

कलानाथ मिश्र

कलानाथ मिश्र

सुनो हे शेषनाग

कलानाथ मिश्र

और अधिककलानाथ मिश्र

    (विगत 25 अप्रैल को आए भयानक भूकंप पर)

    सुनो हे शेषनाग अब धैर्य धरो

    बहुत हुआ

    अब हिलो डूलो मत

    चंचल मन को शाँत करो

    वसुधा को स्थिर रहने दोए

    रहने दो जीवन को

    गतिशील धरा पर

    सुनो हे शेषनाग

    अब धैर्य धरो

    समय गतिमान था भू पर

    सब चल रहा था यंत्र चालित

    नियति निर्धारित गंतव्य पथ पर

    उगते हैं ज्यों सूर्य-चंद्र

    होता है दिन-रात

    साँझ-सबेरा निसिदिन।

    बहती है हवाएँ

    मिलती हैं नदियाँ समुद्र में

    उठते हैं तरंग सागर में।

    जैसे वसुधा अपने संतानों की

    सुधि लेती चलती है।

    किंतु अचानक ही

    प्रकृति ने किया प्रचंड गर्ज़न

    भयानक भूकंप का नर्तन

    सब उथल-पुथल

    मचा भीषण चित्कार

    मची भगदरए हिला भू-धर

    नगाधिराज हुए चकित, प्रकंपित

    अनिष्ट की आशंका से

    भयाक्राँत हुए सब

    विह्वल, विकल, व्याकुल

    आशंकाओ से भर उठा मन

    पल में प्रलय ने पसार लिया

    नरभक्षी पक्षी-सा विशाल पंख

    काढ़ लिया हो जैसे

    तुमने ही हे शेष!

    अपने सहस्त्र विकराल फन

    किंतु अब धैर्य धरो

    सुनो हे शेषनाग

    अब धैर्य धरो

    चंचल मन को शाँत करो।

    मचा हाहाकार विश्वंभरा के वक्ष पर

    धराशाई हुई ईमारतें अट्टालिकाएँ

    वृक्ष, घर, पर्वत, सड़क

    मंदिर मकान

    स्मारक, घरोहर

    प्रकंपित हुए सब

    तिलमिला कर

    एक-एक कर ढहने लगे

    ज्यों तास के पत्तों का घर

    वृक्ष की सूखी पत्तियाँ ज्यों

    झहरने लगी हों पवन के वेग से

    तार-तार हुई धरणी

    छिन्न-भिन्न हुए

    सुसज्जित राजमार्ग

    उठा भयंकर ग़ुबार

    आकाश आछन्न हुआ धूसरित

    दिन ही में दिखा रात का मंजर

    चहुओर मचा कोलाहल

    करुण क्रंदन।

    सुनो हे शेषनाग अब धैर्य धरो

    चंचल मन को शाँत करो।

    जिस धरित्री पर भरोसा कर

    कल्पनाओं ने, संकल्पों ने

    सृजन को रूप दिया

    श्रमिक-स्वेद बहाकर

    बनाया आशियाना

    अरमानों ने प्रेम का

    एक ठिकाना

    सृष्टि ने उसमें बिखेरे रंग

    वही अवणी हिल उठा

    सच ही खिसक गई

    पाँव के नीचे की ज़मीन

    एक निमिष में सब हुआ नश्वर

    अब सुनो हे धराधर

    जीवन की चित्कार

    करुण क्रंदन।

    हे शेषनाग अब

    ब्रह्मा का वरदान सहेजो

    धारण किया है भू को

    मन को चंचला मत होने दो

    अब धैर्य धरो

    सुनो हे शेषनाग

    अब धैर्य धरो

    आकर देखो अपनी आँखें फार

    अपने महाविनाश की परिणति

    मात्र भवन, अटृटालिकाएँ, गेह

    कुटिया ही नहीं हुई धराशाई

    लील गए तुम

    कई परंपराओं को

    इतिहास को

    हमारी संस्कृति की प्रतीकों को

    चढ़गए तुम्हारे अधैर्य की बलि

    घर आँगन परिवार

    कर गए अनाथ तुम

    सुकुमार से बचपन

    सूना हुआ अनगिन आँचल

    चल दिए कर अंग-भंग

    मनुज को, उसकी आस्था को।

    सुनो हे शेषनाग

    अब धैर्य धरो

    सहन नहीं कर पाते अब तुम

    भार मही का

    आवादी का

    नहीं सह पाते बोझ

    अधर्म का

    असंतुलित जलवायु का

    आसमान छूती इमारतों

    कंकड़ी के जंगलों की

    प्रकृति के विनाश की

    प्रदूषित सांस की

    नहीं सह पाए तुम बोझ

    फिर भी

    सुनो हे शेषनाग

    अब धैर्य धरो

    जानता हूँ

    नव सृजन का बीज

    निहित है हर विनास मे

    जानता हूँ

    सृष्टि के इस चक्र को भी

    सीख लिया है खेल-खेल में

    माँ की ही गोद से

    सृजन-संहार की

    तुम्हारी यह कहानी

    अभी-अभी गुंजित हुआ है कान मे

    ‘नव घर उठे, पूरना घर खसे’

    किन्तु फिर भी

    हे शेष नाग

    चंचल मन को शाँत करो

    वसुधा को स्थिर रहने दो

    पढ़ा नहीं तुमने

    कवि दुष्यंत कोए

    ज़िंदगी गुजर जाती है

    एक आशियाँ बनाने में

    तुम्हे वक्त नहीं लगता

    बस्तियाँ जलाने-उजाडने में।

    सुनो हे शेषनाग

    अब धैर्य धरो

    स्रोत :
    • रचनाकार : कलानाथ मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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