सितंबर
sitambar
निस्तब्ध रात के गर्भाशय से
फूट पड़ा है युगों पुराना द्वेष दास का
तीव्र घृणा उसकी सर्वोपरि
जिस पर हैं कुहरे के परदे।
प्रातः से पहले की
तम डूबी घाटी से
आसपास की गिरमाला से
निष्फल झाड़ों-झंखाड़ों से
भूखे समतल मैदानों से
मिट्टी निर्मित घर गाँवों
क़स्बों से
एकांत आँगनों
कुटी अहातों
भंडारों
खेतों, खलिहानों
आटा-चक्की
करघों
खराद से :
गलियों और सड़क से होकर
दर्रों पाषाणों, ढालों, शिखरों से होकर
मर्मर करते गुल्मों
और शरद के पीत वनों से
कीचड़, पानी, उफनाती धाराओं
बाँगर
उद्यानों
दाखबारियों
मैदानों
भेड़ों के बाड़ों
काँटेदार झाड़ियों
जले हुए काले ठूँठों
काँटों
सराबोर दलदली रास्तों से होकर
जीर्ण-शीर्ण
लथपथ कीचड़ में
मरियल
अकथनीय श्रम से कठोर
औ 'शीत-ताप से रुक्ष गात
मति-मंद
मूर्ख
कालिख लिपटे
लंबे बाल
पैर हैं नंगे
व्रण-चिह्नों से अंकित
अपढ़
अनियंत्रित
क्रोधी
उत्तेजित पागल से।
कोई गुलाब नहीं
गीत-संगीत नहीं
घंटा-घड़ियाल नहीं
शहनाई, मृदंग, मशक बाजा नहीं
तुरही, सिघा, ट्रोमबोन नहीं
कंधों पर लटकाए चिथड़ों की पोटली
हाथों में नहीं—चमकीली तलवारें
लेकिन हैं साधारण लाठियाँ
किसान लिए खूँटे
डंडे
अंकुश
धुरा
कुठार
जेली
कुदाल
हँसिया
और सूर्य कमल—
युवा और वृद्ध
आए हर दिशा से
पशुओं के एक अंधे झुंड की तरह
जिसे छोड़ दिया गया हो खुला
अगणित
गर्जना करते साँड
पुकारते
चीख़ते
(उनके पीछे काले पत्थर-सा आकाश)
बिना आदेश
बढ़े
वे उड़े
अदम्य
भयंकर
महान :
सामान्य लोग
जैसे ही पहाड़ियाँ चमकीं
दूर हुई रात
सूर्यकमल
सूर्य और घूमे।
सोया प्रातः
जागा
बंदूक़ों की खड़खड़ाहट से
ढलानों से
पागल
गोलियाँ
उड़ीं
भयानक गर्जना से
तोपों के हाथी-से जबड़े
चिंघाड़े...
सूर्यकमल लड़खड़ाकर धूल में जा पड़े
इनको सम्मान दो
'लोगों की आवाज़
ईश्वर की आवाज़ है।'
लोग
छेदे गए
हज़ारों चाक़ुओं से
कुंठित
अपमानित
भिखारियों से भी ग़रीब
बुद्धि
और बल से
वंचित
अँधेरे
और जीवन की आशंका से
उठ खड़े हुए
और अपने रक्त से लिखा—
स्वतंत्रता
अध्याय एक :
सितंबर।
लोगों की आवाज़—
ईश्वर की आवाज़—
ओ ईश्वर!
शक्ति दो इस पवित्र कार्य के लिए
इन हाथों को
जो श्रम से सख़्त और काले हो गए हैं :
हम करते हैं प्रार्थना
इन प्राणों को साहस दो
इस अशांत वेला में
क्योंकि तुम नहीं चाहोगे
किसी आदमी का ग़ुलाम होना
और अब
हम अपनी क़ब्र की क़सम खाकर कहते हैं
कि हम फिर भी उठेंगे
आदमी को धरती पर मुक्त करेंगे
और इसी इच्छा से
हम अपनी मौत का मुक़ाबला करते हैं
चूँकि इसके पार पल्लवित है केनान भूमि
सत्य की भूमि
हमारे लिए स्वर्ग
हमारे जीवंत सपनों का शाश्वत वसंत...
हमें विश्वास है उस पर
हम इसे जानते हैं
हम इसे चाहते हैं
ओ ईश्वर, हमारा साथ दो।
- पुस्तक : बल्गारियाई कविताएँ (पृष्ठ 55)
- संपादक : रमेश कौशिक
- रचनाकार : गेओ मिलेव
- प्रकाशन : पराग प्रकाशन
- संस्करण : 1985
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