बेवफ़ा पत्नी
bevafa patni
मैं ले गया उसे कुँआरी समझकर नदी किनारे
एक पति था उसके लेकिन।
संत जेम्स की रात थी वह
फ़र्ज़ से बँधी मानो
गुल थी सड़क की बत्तियाँ
शोरगुल करते झींगुर।
गली के आख़िरी मोड़ पर
मैंने छुआ उस की सोई छातियों को
और अचानक खुल गईं वे मेरे लिए
मणियों की बालियों-सी।
उस के लहँगे की कलफ़
गूँजी कानों में मेरे
दस चाक़ुओं से चीरे जाते हुए
रेशमी कपड़े की मानिंद।
पेड़ अपने सिरों पर चाँदनी के बिना—
हो गए थे और ज़्यादा बड़े
और भौंकता था कुत्तों का क्षितिज
नदी से बहुत दूर।
काली ऊँची, वनसंजीली और सरकंडों के पार
उसके केशगुच्छ के नीचे
सँवली रेत में एक गड्डा बनाया मैंने
मैंने उतार दी टाई अपनी
और अपना पट्टामय रिवाल्वर के
उसने अंगवस्त्र अपने।
न तो सीपी, न ही क़ैद की त्वचा
होती है इतनी मृसण
और न आइने दमकते हैं आभा से ऐसी।
फिसल-फिसल जाती थीं
चौंकती हुई मछली-सी उसकी जाँघें
आग से भरी आधी, आधी शीतलतम।
सरपट तय किए उस रात कितने सुंदर रास्ते मैंने
करते हुए सवारी मोतियों वाली घोड़ी पर
बिना रकाब और बिना रास के।
पर मैं दोहराऊँगा नहीं
मर्द होने के नाते
जो बातें कही उसने—
समझ की रोशनी ने
बना दिया होशियार मुझे।
रेत और चुंबनों से सना
मैं लाया था उसको
दूर नदी से।
शमशीरें लिली की लहराती थीं
हवाओं में।
मैंने वही बर्ताव किया
जैसा मैं हूँ—वास्तविक जिप्सी एक।
पुआल के रंग के साटिन की
छबड़ी सिलाई थी एक
मैंने भेंट दी उसको
पर नहीं चाहता मैं प्यार में पड़ना
चुनाँचे एक खाविंद था उसका
जबकि उसने कहा कि वह कुँआरी है
उसे जब ले जा रहा था
मैं नदी के किनारे।
- पुस्तक : प्यास से मरती एक नदी (पृष्ठ 417)
- संपादक : वंशी माहेश्वरी
- रचनाकार : फेदेरीको गार्सिया लोर्का
- प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
- संस्करण : 2020
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