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सागर से

sagar se

अनुवाद : मदनलाल मधु

अलेक्सांद्र पूश्किन

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और अधिकअलेक्सांद्र पूश्किन

    ओ, आज़ाद तरंगित सागर, विदा, विदा!

    मुझे दिखाते हो तुम अंतिम रूप-छटा,

    अपनी नीली लहरें मेरी ओर बढ़ा

    झलमल करते हो गर्वीली सुंदरता।

    एक मित्र की तरह दुखी तेरी मरमर

    और विदा क्षण में मानो मनुहार मधुर,

    शोकाकुल कोलाहल, तेरा शोर सबल

    बार आख़िरी सुनता हूँ यह गरज प्रबल।

    अपने मन में मैं असीम-सी चाह लिए

    तीर-तटों पर तेरे घूमा हूँ अक्सर,

    धुँधले-धुँधले भावों से ले व्याकुल उर

    और कसकते सपनों की पीड़ा लेकर।

    बहुत भली लगती थीं तेरी हुँकारें

    दबी-घुटी-सी ध्वनियाँ औ' स्वर अतल गहन,

    संध्या के घिर आने पर नीरवता भी

    और क्रोध में आने पर गर्जन-तर्जन।

    मामूली-सी नाव किसी मछियारे की

    तेरी इच्छा औ' अनुकंपा के बल पर,

    बड़े मज़े से बहे तरंगों में, जल में,

    पर सहसा यदि मचलो ग़ुस्से में आकर

    कितने ही जलयान डुबो डालो पल में।

    चाहा तेरे सूने, इस निश्चल तट को

    छोड़ूँ सदा-सदा को, किंतु कर पाया,

    तुझे बधाई दूँ मन के उद्गारों से,

    तेरी तुंग तरंगों को शोभित कर दूँ

    अपनी कविता, रचना के उपहारों से।

    तूने देखी राह, पुकारा...मैं ज़ंजीर तोड़ सका

    बहुत हृदय ने चाहा व्यर्थ हृदय हुलसा,

    किसी प्रबल अनुराग मोह में बँधा-बँधा

    मैं तो सागर तट पर ही बस, खड़ा रहा।

    मैं इसका अफ़सोस करूँ क्यों? और किधर

    अब मेरी आज़ाद, मस्त किस ओर डगर?

    तेरे इस नीले-नीले वीराने में

    एक चीज़ ने बाँधा मेरा हृदय, मगर।

    है इसमें चट्टान, समाधि है एक अमर

    जहाँ सो रहीं शीतल निद्रा में दबकर,

    वे स्मृतियाँ जो छू आई थीं ख्याति-शिखर

    हुआ जहाँ पर नेपोलियन का ख़त्म सफ़र।

    वहाँ यातनाओं में उसने दम तोड़ा

    और कुछ समय बाद घिरा तूफ़ान नया,

    एक अन्य मेधावी ने हमको छोड़ा

    एक बड़ा युग-चिंतक जग से चला गया।

    उसके शव पर बेहद रोई आज़ादी

    विजय-मुकुट वह जग में छोड़ गया नायक,

    ऊँचा क्रंदन करो, व्यथित होकर चीख़ो

    सागर, वह तेरी लहरों का गायक।

    तेरा बिंब हृदय पर उसके अंकित था

    और आत्मा उसने तेरी थी पाई,

    तेरी तरह प्रबल, वह बंधन-मुक्त रहा

    तेरे जैसी मिली खिन्नता, गहराई।

    शून्य हुआ संसार...कहाँ तुम अब मुझ को

    बोलो सागर, कहाँ मुझे ले जाओगे?

    लोगों का है भाग्य एक-सा सभी जगह,

    जहाँ कहीं कुछ भला, वहीं बंदूक़ लिए

    किसी निरंकुश को तुम बैठा पाओगे।

    विदा, विदा सिंधु! रहेगी सदा बसी

    यह गंभीर तुम्हारी सुषमा इस मन में,

    और सुनूँगा बहुत दिनों तक गूँज गहन

    तुम से होकर दूर, कहीं संध्या क्षण में।

    मुझे वनों में, औ' नीरव वीरानों में

    अनुभव होगा तेरी स्मृतियों का स्पंदन,

    देखूँ तेरी जलग्रीवाएँ, चट्टानें

    मैं प्रकाश-तम, सुनूँ तरंगों का गुंजन।

    स्रोत :
    • पुस्तक : अलेक्सान्द्र पूश्किन चुनी हुई रचनाएँ (खंड-1) (पृष्ठ 13)
    • रचनाकार : अलेक्सान्द्र पूश्किन
    • प्रकाशन : प्रगति प्रकाशन, मास्को
    • संस्करण : 1982

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