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रिस्तों की डोर

riston ki Dor

राजेश राजभर

अन्य

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राजेश राजभर

रिस्तों की डोर

राजेश राजभर

और अधिकराजेश राजभर

    विश्वासों पर खरा उतरना—

    कहाँ कहीं, मिलते अपने...

    फिर भी अपनों को—अपना

    कहना पड़ता है,

    कभी मिट्टी तो—

    कभी पत्थर—बनना पड़ता है!

    मूक बधिर बन संजोए—

    भिन्न-भिन्न रिस्तों की माला,

    पानी पर पानी उड़ेल

    शांत करे जलती ज्वाला,

    सर्वदा कहाँ उजाले रहते!

    अंधियारों तक चलना पड़ता है,

    कभी मिट्टी तो—

    कभी पत्थर-बनना पड़ता है!

    अनुरक्ति भाव लिए ज़िंदगी—

    कभी स्थाई नहीं होती,

    प्राकृतिक नियम कहता

    सुख-दुःख की लंबाई नहीं होती।

    ख़ुशहाली पलभर की

    हँसकर भी रोना पड़ता है,

    कभी मिट्टी तो—

    कभी पत्थर—बनना पड़ता है!

    कहाँ मिला है! जग में कोई

    सदा समर्पित होकर—

    अपनेपन के आँगन में

    संबंधों का दीप जलाकर!

    नित पाप-पुण्य की तुला पर

    ख़ुद को रखना पड़ता है,

    कभी मिट्टी तो—

    कभी पत्थर-बनना पड़ता है!

    शाम सबेरे अपने तेरे

    फिर भी पहुँच ना पाए—

    अजब-ग़ज़ब रिस्तों की डोरी

    क्या-क्या नाच नचाए,

    निराकार संसार के पथ पर,

    कुछ पाकर, कुछ खोना पड़ता है,

    कभी मिट्टी तो—

    कभी पत्थर—बनना पड़ता है!

    क्रोधित काया कुंठित होती

    हृदय हितों से प्रेरित कर,

    सत्य सबल है कण–कण निश्चल,

    आशंकित अनुभूति ना कर!

    अवसरवादी घरों घरी है—

    पढ़कर भी अनपढ़ बनना पड़ता है,

    कभी मिट्टी तो—

    कभी पत्थर—बनना पड़ता है!

    स्रोत :
    • रचनाकार : राजेश राजभर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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