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प्रलय-दिवस की भेरी

prlay divas ki bheri

दिमित्री मेरेज़कोव्स्की

दिमित्री मेरेज़कोव्स्की

प्रलय-दिवस की भेरी

दिमित्री मेरेज़कोव्स्की

और अधिकदिमित्री मेरेज़कोव्स्की

    समस्त धरा पर एक रव फैल जाता है

    एक मर्मर, एक हलचल।

    भेरी का आह्वान समस्त आकाश में गूँज जाता है :

    लो बंधु, हमारे लिए आह्वान हो रहा है। उठो जागो!

    नहीं, अभी अँधेरा अटल है,

    मैं उठूँगा नहीं, जागूँगा नहीं

    मुझे उठाओ मत, जगाओ मत

    मेरी क़ब्र को खटखटाओ मत!

    अब तुम सो नहीं सकते, इस बार

    आह्वान का स्वर कठोर है,

    आख़िरी पुकार है यह

    जैसे गर्भाशय से नया जीवन प्रसूत होता है

    वैसे ही मक़बरों से सब उठ रहे हैं।

    नहीं मैं नहीं उठ सकता। मेरे सारे अनगाए गीत

    कब के मर चुके। मेरी पलकों पर मृत्यु की मुहरें हैं।

    उनके मिथ्या आह्वानों पर मैं विश्वास नहीं करता।

    मैं नहीं उठूँगा, मैं उठ सकता ही नहीं

    बंधु, मैं लज्जित हूँ, सकुचा रहा हूँ—

    धूल, विकृति, सड़ायंध, गलीज़!”

    बंधु, प्रभु ने हमारी क़ब्रें, हमारे कारागार देख लिए हैं।

    अब सबको मुक्त होना पड़ेगा

    सबको अपने कृत्यों का निर्णय सुनना पड़ेगा

    देवदूत उसका सिंहासन वहन कर रहे हैं

    हमारा प्रभु हमारा पिता अवतरित हो रहा है

    जो मृतक हैं उन्हें जीवित होना पड़ेगा—

    ख़ुशी से या नाख़ुशी से

    बंधु—तुम उठोगे, जागोगे!”

    स्रोत :
    • पुस्तक : देशान्तर (पृष्ठ 413)
    • संपादक : धर्मवीर भारती
    • रचनाकार : दिमित्री मेरेज़कोव्स्की
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
    • संस्करण : 1960

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