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प्रतीक्षा

pratiksha

अनुवाद : हरिशंकर शर्मा

सुधींद्रनाथ दत्त

अन्य

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और अधिकसुधींद्रनाथ दत्त

    पत्राच्छादित वन में

    किसकी पग-ध्वनि सुन पड़ती?

    जानता हूँ अब लौटेगी कभी फागुन की पूनो

    तो फिर क्यों

    अंजलि प्रस्तुत है पलाश की?

    वन के बाहर धू-धू करती क्षयित माटी;

    नहीं फसल की दुराशा भी अंबर में;

    कब का कहा जा चुका,

    जो बाक़ी था कहने को

    महाशून्य के मौन में परिस्फीत

    विविक्ति आज वेष्टनीविहीन;

    अधुना निश्चिह्न अतीत, आगामी;

    नास्ति में नेति स्वतःसिद्ध प्रमा,

    सोहंवादी की आर्ति आत्मोपमा,

    अगति की गति मनोरथ वृथा लगाम ही

    और भी एक बार,

    हज़ार बरस पहले,

    अस्तराग में विप्रलब्ध आस्था खोज पाई थी

    उज्जीवन की प्रेषणा;

    और आज फिर से

    हज़ार बरस पूरे होते रहे हैं सही,

    फिर भी मानव के इतिहास में

    मन्वंतर सर्वनाश का ही इंगित है

    कम से कम

    इसमें तो संदेह नहीं तनिक भी

    अलातचक्र में घूम-घूमकर, संसार

    अनादि अमा को लाता हमारे सम्मुख;

    व्यक्तियों के पुंज-पुंज बुदबुद,

    समय के स्रोत में अस्थिर, अरुंतुद,

    ममता की गाँठें पड़ती जातीं इस द्वीप में उस द्वीप में

    अ-भाव अग्रज है शायद स्व-भाव का ही:

    इसी से प्रभास में पूर्णता प्राप्त करता ब्रज—

    प्रतिज्ञा निभाता मरण, त्राण के बदले:

    विशृंखला की पराकाष्टा में स्थाणु,

    पृथ्वी अनाथ, यथेच्छ परमाणु;

    प्रगतिशील केवल कालभैरव सदल-बल

    इसलिए किसी की राह देखने में लाभ नहीं;

    श्रेय है अमोघ निधन स्वधर्म में ही;

    विरूप विश्व में मानव सर्वथा अकेला।

    अनुमान में शुरू औ' समाप्ति अनिश्चय में,

    जीवन पीड़ित प्रत्यय-प्रत्यय में;

    फिर भी क्या

    पा सकूँगा निज का दर्शन मैं?

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 541)
    • रचनाकार : सुधींद्रनाथ दत्त
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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