ऐसा नहीं था कि वह चूल्हे से निकलती हल्की रोशनी में,
उसके भिखारियों जैसे तार-तार कपड़ों में उसे पहचान न पाई हो;
नहीं, सब कुछ साफ़ था :
घुटने की हड्डी पर वही निशान, वही दिलेरी और चतुर निगाहें।
दीवार के पीठ टिकाए हुए वह डर गई, उसने कोई बहाना खोजना चाहा,
ताकि थोड़ा वक़्त मिल जाए, तुरंत जवाब न देना पड़े,
वह अपनी भावनाएँ छिपा सके। तो क्या इसी के लिए उसने अपने
बीस साल गँवा दिए?
इंतज़ार करने और सपने देखने के बीस साल, इसी कम्बख़्त, ख़ून
से सने हुए
सफ़ेद दाढ़ी वाले आदमी के लिए? वह अवाक् एक कुर्सी पर
ढह गई, फिर उसने ग़ौर से अपने विवाह के प्रार्थियों को फ़र्श पर
मरे हुए देखा
जैसे अपनी ही मरी हुई इच्छाओं को देख रही हो। उसने कहा,
आइए,
और उसे अपनी ही आवाज़ किसी और की, दूर से आती हुई लगी—
एक कोने में रखे हुए उसके करघे की छाया छत पर पिंजड़े की तरह
पड़ रही थी;
और वे तमाम चिडियाँ जिन्हें वह हरे पत्तों के बीच लाल धागों से काढ़ती
रही थी, अब
वापसी की इस रात में अचानक ज़र्द और काली पड़ गई थीं
और उसकी आख़िरी सहनशीलता के सपाट आसमान में बहुत नीचे
उड़ने लगी थीं।
- पुस्तक : दरवाज़े में कोई चाबी नहीं (पृष्ठ 152)
- संपादक : वंशी माहेश्वरी
- रचनाकार : यानिस रित्सोस
- प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
- संस्करण : 2020
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