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'पश्चिमी प्रभंजन' के प्रति

pashchimi prbhanjan ke prati

अनुवाद : यतेन्द्र कुमार

पर्सी बिश शेली

अन्य

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पर्सी बिश शेली

'पश्चिमी प्रभंजन' के प्रति

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और अधिकपर्सी बिश शेली

     

    (1)

    हे प्रमत्त पश्चिमी प्रभंजन, शरदकाल के जीवन प्राण!
    हुए पलायित, तेरी अलख उपस्थिति से पल्लव निष्प्राण।
    जैसे प्रेत पलायन करते तांत्रिक से होकर भयमान,
    कपिल, श्याम और पीले ज्वर से रक्तिम वर्ण, पर्ण भ्रियमाण,
    पड़े ढेर के  ढेर महामारी से जैसे हों मर्दित,
    बिठा सपक्ष बीज निज रथ में, पहुँचाता तू उन्हें त्वरित,
    काली, शिशिराई शय्या पर, जहाँ अंधशीतल-तल पर,
    तब तक है प्रत्येक सुप्त, ज्यों शव समाधि के हो भीतर,

    जब तक तेरी नील बहिन बासंती, नहीं गुँजाती स्वर,
    आकर अपनी तुरही से, इस स्वप्निल धरती के ऊपर,
    (हाँक मृदुल कलियों के दल को खाने हवा) नहीं भरती,
    जब तक प्राणित वर्णों, गंधों से पर्यंत, समतल धरती,
    हे, उन्मत्त! सकल जल-थल पर घूम रहा तेरा ही तन,
    रूद्र और ब्रह्मा तू दोनों! सुन मेरी, पाश्चात्य पवन!

    (2)

    उच्च  विलोड़ित गगन मध्य में, तेरे द्रुतनद के ऊपर,
    स्वर्ग और अम्बुधि की ही गुम्फित शाख़ों से झर-झर कर,
    गिरे धरित्री के मृत पर्णों से ही, शिथित बलाहक दल;
    वर्षा विद्युति के ये सब उपदेव, पड़े हैं अब निश्चल,
    तेरी उस पवमान लहर की नील सतह ही के ऊपर,
    ज्यों लहराते हों उत्कट, उज्जवल, चल कुंतल हहर-हहर,
    किसी भयंकर मीनड1 के सिर पर से उत्थित हो होकर,
    धूसर क्षितिज तटी से ले, अंबर की ऊँची चोटी पर,
    केश-गुच्छ हैं उस आगामिनि, आँधी के ही तो व्यापित!
    तू बनता मर्सिया वर्ष का, मरणोन्मुख है जिसकी गति,
    जिसके बृहद समाधिस्थल पर यह रजनी जो गमनोद्धत—
    होगी गुम्बज; तेरे सब केंद्रीकृत अभ्रंकुल की छत,
    जिसके सघन वायुमंडल की छाती से ही फट फटकर,
    बरसेंगे काले गजनकण, औ' ज्वाल, उपल तू जा सुन कर!

    (3)

    तूने उसे जगाया जब था ग्रीष्म-स्वप्न में आत्म विभोर,
    वह नीलिम भूमध्यार्णय, जो कँकरीले टापू की ओर।
    'वैयाई2’ की खाड़ी में था, पड़ा नींद से अलसाया,
    अपनी स्फटिक-निर्झरों की कुण्डलि द्वारा था दुलराया,
    और देखता था निद्रा में वह प्राचीन सौध, मीनार,
    जो करते हिलोर के घनतर-दिवस-मध्य में कंप-विहार!
    नीली काई कुसुमदलों से आच्छादित ये सब सुंदर!
    इसने मृदु थे मल होता था मूर्च्छित उनका चित्रण कर!
    तू बढ़ता दुर्द्धष वेग से महासिंधु की छाती चीर!
    पथ देते तत्क्षण तुझको, भयकंपित अटलान्टिक के वीर!
    किंतु दूर नीचे खिलते सामुद्रिक पुष्प व स्पंदित वन,
    वारिधि तल के नीरस कोंपल दल का पहिने हुए वसन!
    तेरा रव सुन, सहसा होते, भय से पीले कंपित म्लान,
    आतंकित हो लुंठित होते स्वयं सभी सुन, हे पवमान

    (4)

    होता यदि मैं जीर्ण पत्र, तो तू धरता निज अंचल में!
    संग व्योम में उड़ता तेरे, होता यदि द्रुत बादल मैं।
    यदि हिलोर ही होता, तेरी शक्ति तले पिस लेता श्वास!
    पर तेरे अकूत बल का मैं, कर पाता पलभर आभास।
    हे अदम्य! केवल तुझसे मैं होता यदि थोड़ा स्वच्छंद।
    काश! कहीं होता ऐसा मैं, शैशव में था ज्यों निर्बध!
    तब मैं तेरा साथी बनकर, भरता चक्कर अंबर पर,
    चाह कि तेरी आकाशी गति से हो जाऊँ मैं द्रुततर,
    नहीं दिवा सपना सा लगता, कभी नहीं तब यों रोकर,
    विवश प्रार्थना तुझसे करता कठिन आपदा में फँस कर!
    आह! उठा ले, मुझे लहर-सा, पल्लव-सा, बादल-सा प्रान!
    बिंधा पड़ा जीवन काँटों पर तन है मेरा लहूलुहान!
    हाय! समय के कठिन भार के नीचे मैं बंदी नतशिर,
    मैं भी तो तुझसा ही हूँ उच्छृंखल, द्रुत, अभिमानी नर।

    (5)

    अपनी बीन बना मुझको भी ज्यों कानन है तेरी बीन,
    इससे क्या, यदि मैं भी होता ऐसे ही मृत पत्र-विहीन!
    तेरी शक्तिमयी भैरव रवलहरी दोनों से निश्चय,
    लेगी वह गहरी, शिशिराई, ध्वनि, मृदु, यद्यपि करुणामय!
    बना आज तू मेरे प्राणों को ही निज प्राणों का धाम!
    रुद्रप्राण! तू बन जा  मुझसा, हो जा मुझसा ही उद्दाम!
    कर विकीर्ण मेरे मृत भावों को अविरल भूमंडल पर,
    जैसे छितरे मृत पल्लव नव जीवन पाने को भूपर।
    और इसी मेरी कविता के सम्मोहन द्वारा सत्वर,
    ज्यों अनबुझ भट्टी से गिरते, भस्म अग्नि के कण उड़कर,
    ज्यों ही तुमसे बिखरें मेरे शब्द मनुजता के भीतर।
    मेरे अधरों के ही द्वारा तू इस सोती पृथ्वी पर,
    इस भविष्यवाणी का बन जा अब तू शंखनाद भरपूर,
    आया है यदि शरद रह सकेगा वसंत फिर क्या अब दूर?

                             
    स्रोत :
    • पुस्तक : शेली (पृष्ठ 20)
    • संपादक : यतेन्द्र कुमार
    • रचनाकार : पर्सी बिश शेली
    • प्रकाशन : भारत प्रकाशन मंदिर, अलीगढ़

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