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पार्थिव मन के लिए

parthiv man ke liye

प्रतीक ओझा

प्रतीक ओझा

पार्थिव मन के लिए

प्रतीक ओझा

और अधिकप्रतीक ओझा

    पतले मन की डंठल से बँधी रेशम की डोर पानी की सतह पर अपने डूबने को जोह रही मुझसे दूर आधी डूबी आधी विचारमय बच नहीं पाएगी वह चीनी के टुकड़े भर का वज़्न तो ही जाएगा उस पर धीरे-धीरे घुसकर फूट जाएगा नाक में पानी का सोता तेज़ी से घुसेगा मुँह में श्वास के लिए करना चाहेगी जब वह मुँह ऊपर नीचे ही जाएगी दबती घुटती जाएगी निकलने लगेगा बुलबुला नहीं काम आएगा कोई प्रतिरोध सब कुछ व्यर्थ चला जाएगा मृत्यु से पहले एक अंतिम बार जीवन के लिए छटपटाना भी।

    कुछ नहीं बचेगा

    सिवा डूबने के।

    संकटमय संभव के उस आख़िरी क्षण पश्चात डूबी मिलेगी वह जीवन को अधूरा छोड़ निकल जाएगी कहीं यहाँ से कहीं दूर हो जाएगी मुक्त।

    अ-मुक्त रहूँगा तो सिर्फ़ मैं याचना की अनगिन पुकारें लिए मुक्ति की आस में बैठा पीड़ित और अभिलाषित।

    अपने मन से अ-युग्मित मैं मन के साथ कहाँ जा पाया नहीं हो पाया मुक्त पर जब होऊँगा तब अपनी छाया लिए कहाँ ढूँढ़ूँगा उसे किस ताल में तैरूँगा किस नदी में मारूँगा डुबकी समुद्र के कौन से तट पर खोजूँगा लहरों की बूँद के किस हिस्से में पाऊँगा अपना वह पार्थिव मन और कब होऊँगा सती उसे लेकर…

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रतीक ओझा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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