दिव्य-ज्योति की विफल तृषा ले
मैं था मरु में भटक रहा,
देवदूत तब पंखोंवाला
सहसा सम्मुख प्रकट हुआ;
सपने-सी हल्की अँगुलियाँ
दी नयनों से तनिक छुआ,
भीत गरुड़-सा मैं तब चौंका
औ' भविष्य जगमगा उठा।
कान छुए जब उसने मेरे
गूँज हुई, ज्यों वज्र गिरा,
नभ दूतों के पंखों का स्वर
सुना, गगन काँपा सिहरा,
मुझे सुनाई दी सागर की
हलचल, जलचर जहाँ चलें,
घाटी में अँगूर लताएँ
रस खींचें औ’ बढ़े, फलें।
देवदूत ने झुक मुझपर तब
जीभ निकाली पाप भरी,
भय से मेरे होंठ सुन्न थे
मुँह से लोहू धार झरी,
उस झूठी, कपटी जिह्वा की
जगह साँप की जीभ धरी।
ले कटार छाती को चीरा
हृदय धड़कता काट दिया,
और दहकते अंगारे को
दिल कारा में बंद किया,
शव-सा पड़ा हुआ था मरु में
गूँजा तब प्रभु का आह्वान—
ओ पैग़म्बर, उठो, सुनो तुम
दो मेरे शब्दों पर कान,
मेरी इच्छा को लेकर तुम
सभी जगह जग में जाओ,
दहक रहे शब्दों से अपने
सब के अंतर धधकाओ।
- पुस्तक : अलेक्सान्द्र पूश्किन चुनी हुई रचनाएँ (खंड-1) (पृष्ठ 19)
- रचनाकार : अलेक्सान्द्र पूश्किन
- प्रकाशन : प्रगति प्रकाशन, मास्को
- संस्करण : 1982
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