अब दिन ढल गया था।
नगर-निवासियों में श्रेष्ठ दानवती अलमित्रा ने अलमुस्तफ़ा से कृतज्ञता भरे स्वर में
कहा—धन्य है आज का दिन, और धन्य है अमृतवर्षिणी तुम्हारी वाणी। हम तुम्हारे उपदेश
से कृतार्थ हुए।
अलमुस्तफ़ा ने आश्चर्य से पूछा—क्या मैंने उपदेश दिया था! क्या मैं भी श्रोता नहीं था?
कुछ समय बाद वह मंदिर की सीढ़ियों से उतरा। सब नगरनिवासी उसके पीछे चले।
जहाज़ पर पहुँचकर वह उसकी छत पर खड़ा हो गया।
और सबकी ओर मुख करके गंभीर घोष के साथ फिर कहना शुरू किया :
ऐ आर्फ़लीज-निवासियो! यह पवन मुझे तुमसे विदा होने का आदेश दे रहा है।
मैं पवन की तरह शीघ्रगामी नहीं, तथापि मुझे जाना तो है ही।
हम पथिक, एकांत पथ के शोधक हैं। आज के दिन का जैसा अंत हुआ वहीं से कल के
दिन का प्रारंभ नहीं करते।
उदीयमान सूर्य हमें अस्तगामी सूर्य के प्रदेश से भिन्न देश में पाता है।
पृथ्वी जब विश्राम करती है तब भी हमारी यात्रा का विराम नहीं होता।
वट वृक्ष के बीज के समान हमारा जीवन है। हमारे हृदय की पूर्णता और परिपक्कता के
समय ही हम वायु के हाथों पृथ्वी पर बिखेर दिए जाते हैं।
बहुत थोड़े क्षण मैं तुम्हारे मध्य रहा और बहुत थोड़े शब्द कहे।
कदाचित् मेरे शब्द तुम्हारे कर्णकुहर में विलीन हो जाएँ और मेरी प्रेम-रेखा तुम्हारे
स्मृति-पट पर धुँधली हो जाए तो मैं फिर भी आऊँगा।
और तब अधिक सबल मन और अधिक आत्मवादिनी वाणी से तुम्हें अपनी बात
कहूँगा।
निश्चय ही मैं उड़ते सागर-ज्वार के साथ पुनः जाऊँगा।
और तब भले ही मृत्यु मुझे अपने दामन में छिपा ले और अनंत मौन अपने आँचल से
ढाँप ले, मैं तुम्हारे विवेक का आश्रय लूँगा।
मेरा स्वर व्यर्थ नहीं जाएगा।
तब मेरी वाणी में यदि कुछ भी सत्य होगा तो वह अधिक स्पष्ट सुनाई देगा और
तुम्हारे विचारों के साम्य में स्वतः प्रकट होगा।
ऐ आर्फ़लीज-निवासियो! मैं वायु-वेग से जा रहा हूँ—किंतु शून्य अतल में नहीं जा
रहा।
यदि आज का दिन तुम्हारी अतृप्ति और मेरे प्रेम को पूर्णता नहीं दे सका तो कल यह
श्रद्धा रखो।
मनुष्य की अतृप्त इच्छाएँ बदल जाती हैं, प्रेम नहीं बदलता, और न ही अपने प्रेम से
मन के मनोरथ पूर्ण करने की अभिलाषा ही बदलती है।
इसलिए विश्वास रखो, मैं अनंत मौनमय प्रदेश से अवश्य लौटूँगा।
वह कुहरा जो सुबह खेतों में ओस-कण छोड़कर विदा हो जाता है, ऊपर उठकर
आकाश में मेघों का रूप धारण करेगा और वर्षा के रूप में बरसेगा।
मैं भी उसी कुहरे के समान हूँ।
कितनी ही सूनी रातों में मैं तुम्हारे जनपदों में घूमा हूँ, मेरी आत्मा तुम्हारे गृहद्वारों
का स्पर्श करती रही है।
तुम्हारे हृदय-कंपन मेरे हृदय को धड़कन दे रहे हैं और तुम्हारे उच्छवास मेरी साँसों
में मिले हैं। मेरा तुमसे अंतरंग परिचय हुआ है।
जागृति में मुझे तुम्हारे सुख-दुःख का पूर्ण ज्ञान रहा है। निद्रा में तुम्हारे स्वप्न मेरे स्वप्न
बने हैं।
पर्वतों के बीच जैसे झील रहती है, मैं तुम्हारे मध्य रहा हूँ।
मुझमें तुम्हारे जीवन के शिखर और जीवन के अवरोह प्रतिबिंबित हुए हैं और
तुम्हारे शिखर को स्पर्श करके उड़ते विचारों और विकारों की प्रतिच्छाया भी मेरे हृदय में
प्रतिबिंबित हुई है।
मेरे प्रशांत मन में तुम्हारे बच्चों का हास्य-प्रपात बहा है और युवकों की विलास-नदी
प्रवाहित हुई है!
मेरे अंतर के अतल तल पर पहुँचकर भी उन झरनों और नदी का संगीत स्वर रुका
नहीं है।
बल्कि तब उस हास्य-प्रपात से भी मधुर और उस विलास-प्रवाह से भी विराट् शक्ति
मेरे अंतर में जागरित हुई।
वह था तम्हारा असीम स्वरूप।
वही विराट् शरीर जिसके अंदर तुम तंतु और पेशियाँ बनकर रहते हो।
उसके गीत की तुलना में तुम्हारे सब संगीत हृदय की निःस्वर धड़कनों के समान हो
जाते हैं।
उस विराट् के मध्य में होने से ही तुम विराट् हो।
उसको देखकर ही मुझे तुम्हारे दर्शन हुए और मैंने तुमसे प्रेम किया।
कारण, उस विराट् क्षेत्र में कौन-सी ऐसी दूरी है जहाँ प्रेम न पहुँच सके?
कौन-सी ऐसी आशा-आकांक्षा और कल्पना है जो उस विराट् उड़ान से बाहर हो?
मधुमंजरी से आच्छादित विशाल वट वृक्ष के समान वह विराट् पुरुष तुम्हारे अंतर में
बसा है।
उसी की शक्ति तुम्हें पृथ्वी से बाँध रही है और उसी का सुवास तुम्हें आकाशविहारी
बना रहा है, और उसी की अमरता में तुम मृत्युंजय बनते हो।
तुम्हें कहा जाता है कि लोहे की शृंखला की तरह दृढ़ होने पर भी तुम इसकी सबसे
कमज़ोर कड़ी के तुल्य हो।
यह केवल अर्धसत्य है। तुम अपनी दृढ़तम कड़ी के समान दृढ़ भी हो।
तुम्हारे क्षुद्र कार्यों से तुम्हारी शक्ति को तोलना मानो समुद्र तट की भंगुर फेन से
समुद्र की शक्ति का का अनुमान करता है।
तुम्हारी क्षणिक असफलता से ही तुम्हारे महत्त्व की परख करना वैसा ही है जैसे
ऋतुओं पर परिवर्तनवादी होने का कलंक मढ़ना।
हाँ, तुम समुद्र के समान असीम हो।
यद्यपि भीमकाय जहाज़ तुम्हारे तट पर ज्वार की प्रतीक्षा करते हैं, तथापि तुम समुद्र
की तरह अपने ज्वार को असमय नहीं ला सकते।
तुम ऋतुओं के समान भी हो।
यद्यपि अपने शिशिरकाल में तुम वसंत को आने की आज्ञा नहीं देते।
तथापि तुम्हारे अंतर में प्रसुप्त वसंत मुसकाता रहता है और तुम्हारी अस्वीकृति से
खिन्न नहीं होता।
यह न समझो कि मैं तुम्हें यह इसलिए कह रहा हूँ कि तुम परस्पर यह कहो कि 'उसने
हमारी सुंदर शब्दों में स्तुति की।’ ‘या उसने केवल हमारे श्रेष्ठ कार्यों को देखा।’
सच तो यह है कि अपने अंत:करण में जो तुम जानते हो वहीं मैं शब्दों में तुमसे कह
रहा हूँ।
और शब्दमय ज्ञान, शब्द-रहित ज्ञान की छाया हो तो है।
तुम्हारे विचार और मेरे शब्द उस मुहरबंद स्मृति की ही तरंगें हैं जिसमें हमारे विगत
काल का इतिहास सुरक्षित है।
उस काल का, जब कि पृथ्वी को न हमारा ज्ञान था न ही अपने आपका।
न ही उन रातों का, जब पृथ्वी अपने प्रथम निर्माण की अस्त-व्यस्तता में सोई हुई
थी।
ज्ञानी, पुरुष तुम्हें ज्ञान देने आए हैं—मैं तुमसे ज्ञान ग्रहण करने आया हूँ।
और देखो, मुझे वह वस्तु मिली है, जो ज्ञान से भी महान् है।
यह है वह चैतन्य ज्योति जो सदा अधिकाधिक प्रज्वलित होगी।
परंतु तुम इसकी वृद्धि से अनभिज्ञ रहकर क्षीण होते दिनों पर शोक मनाते हो।
यही जीवन है, जो शरीर में जीवन की शोध करते हुए मृत्यु से डरता। है।
मेरी दुनिया में क़ब्रों का नाम तक नहीं।
ये पर्वत और समतल आगामी जीवन के पालना और सोपान हैं।
जब कभी तुम उस भूमि के निकट से निकलो, जहाँ तुमने अपने पुरुखे को दफ़न किया
था, तो उसे ध्यानपूर्वक देखो तो तुम्हें यह अनुभव होगा कि तुम स्वयं वहाँ अपनी संतानों के
हाथों में हाथ डालकर नाच रहे हो।
वास्तव में प्रायः तुम बिना जाने ही प्रसन्न होते हो।
मेरी तरह तुम्हारे पास और भी आए, जिन्होंने तुम्हारे साथ आशापूर्ण वचन किए और उनके
पुरस्कार रूप तुमने अपनी संपति, अपनी शक्ति और अपनी शोभा उनकी भेंट कर दी।
यद्यपि मैंने तुमसे कोई बड़ा वचन नहीं किया, तो भी तुमने उनकी अपेक्षा मेरे साथ
अधिक उदारता का प्रदर्शन किया है।
तुमने मेरे भावी जीवन की पिपासा में वृद्धि कर दी है। निश्चय ही मनुष्य के लिए
इससे बड़ा कोई उपहार नहीं, जो उसके उद्देश्यों को तृषित होंठों और संपूर्ण जीवन को
झरने में परिवर्तित कर देता है।
और इसी में मेरा मान और पुरस्कार वर्तमान है :
कि जब कभी मैं उस झरने में अपनी प्यास बुझाने आता हूँ तो उस जीवित जल को
तृषित देखता हूँ।
और जब मैं उसे पीता हूँ तो वह मुझे पीता है।
तुममें से कई मुझे पुरस्कार ग्रहण करने में गर्वित और लज्जाशील समझते रहे हैं।
मज़दूरी प्राप्त करने में सचमुच ही मैं गर्वीला हूँ परंतु पुरस्कार ग्रहण करने में नहीं।
तुम मुझे अपने घरों में अपने साथ बिठाकर भोजन कराने को प्रस्तुत थे परंतु मैंने
पर्वतों पर बेर खा-खाकर उदरपूर्ति की।
और तुम मुझे अपने घरों में आश्रय देने के लिए उद्यत थे परंतु मैंने मंदिर के सोपानों
पर लेटकर रातें काटीं।
परंतु क्या यह तुम्हारे द्वारा की गई मेरी दिवा-रात्रि की प्रेमपूर्ण देखभाल का
परिणाम नहीं था कि मेरे मुख का आहार मधुर बन गया और मेरी निद्रा सुखद-स्वप्नों से
भरपूर हो गई?
इसके लिए मैं तुम्हें सबसे अधिक आशीर्वाद देता हूँ।
तुमने मुझे बहुत कुछ दिया, परंतु तुम नहीं जानते कि तुमने कभी कुछ दिया भी है।
निश्चय ही कृपा, यदि अपने-आपको दर्पण में देखे, तो पत्थर बन जाती है। और एक
शुभ कर्म जो अपने-आपको सुकुमार नामों से पुकारे, शाप का कारण बन जाता है।
तुममें से कुछ लोग मुझे एकांतसेवी और अपने ही अकेलेपन में खोया परदेसी कहते हैं।
और स्वयं तुमने कहा है—यह वृक्षों से बातें करता है, मनुष्यों से नहीं।
—यह गिरि-शिखरों पर अकेला रहता और शहर की बस्ती को अकिंचन मानता है।
यह बात सच है कि मैं पर्वत की चोटियों पर गया हूँ और वन-उपवन में दूर-दूर
अकेला घूमा हूँ।
बहुत दूर गए या बहुत ऊँचा चढ़े बिना मैं तुम्हें भली-भाँति देख ही कैसे सकता था?
सच है, दूर गए बिना कोई निकट हो भी कैसे सकता है?
तुममें से कुछ ने मुझे पुकारा, वाणी से नहीं बल्कि हृदय से :
—इन अजेय और अगम्य शिखरों पर चढ़ने वाले परदेसी!
तुम उन पर्वत-शृंगों पर क्यों चढ़ते हो जहाँ चीलें अपना घोंसला बनाती हैं?
—तुम अलभ्य की तलाश क्यों करते हो?
—तुम कौन-से झंझावात को अपने जाल में बाँधने की कोशिश कर रहे हो?
—तुम कौन-से तेज़ उड़ने वाले पक्षियों को आकाश में बाँधने के लिए जाल बिछा रहे
हो?
—आओ, और हमारे बीच हमारे सदृश बनकर रहो।
—आओ, और हमारे अन्न में से अपना भाग लेकर अपनी क्षुधा मिटाओ और हमारी
सुरा से अपनी तृषा शांत करो।
ये शब्द वे अपनी एकांतगत आत्मा से कहते थे।
किंतु यदि उनकी यह एकांतता और अधिक गूढ़ हो जाती तो उन्हें पता लग जाता है
कि मैं उनसे दूर रहकर भी उन्हीं के आनंद और दुःखों के रहस्य का शोध कर रहा था।
मैं केवल उन्हीं के आकाश विहारी विराट् रूप की एक व्याध की तरह खोज करता
था।
किंतु शिकारी स्वयं भी शिकार था।
कारण, मेरे धनुष से छूटे हुए बहुत-से बाण मेरे ही हृदय में चुभ गए हैं।
और उड़ने वाला पृथ्वी पर रेंगने वाला भी था।
क्योंकि जब मैं आकाश में उड़ने के लिए पंख फैलाता था, तो उसकी छाया सूर्य के
प्रकाश में पृथ्वी पर पड़ती थी—जो कछुए के समान पृथ्वी पर धीरे-धीरे रेंगती थी।
और मैं जैसा श्रद्धावान् हूँ वैसा ही संशयात्मा भी हूँ।
क्योंकि मैंने अपने धाव में प्रायः अपनी उँगली डाली है ताकि मुझे तुम्हारे प्रति अधिक
विश्वास हो और तुम्हारे विषय में अधिक ज्ञान की प्राप्ति हो।
उसी विश्वास और ज्ञान के भरोसे मैं तुम्हें कहता हूँ कि,
—तुम अपने शरीररूपी पिंजड़े के बंदी नहीं हो और न ही घरों और खेतों की सीमा में
रहने वाले हो।
—तुम्हारा 'स्व' पर्वत-शिखरों पर पवन के झकोरों में स्वतंत्र विचरने वाला है।
यह कोई ऐसी वस्तु नहीं जो गर्मी पाने के लिए सूर्य-किरणों की उपेक्षा करती है या
सुरक्षा के लिए भूमि के अँधेरे छिद्रों की शरण लेती है।
अपितु यह एक ऐसी वस्तु है—एक ऐसी आत्मा है—जो पृथ्वी पर छाई हुई है और
आकाश में संचार करती है।
यदि मेरे शब्द संदिग्ध है—तो उन्हें स्पष्ट करने का प्रयत्न मत करो।
वस्तुमात्र का आरंभ संदिग्ध और धुँधले से ही होता है—किंतु उनका अंत वैसा नहीं
होता। और मैं चाहता हूँ कि तुम्हें आरंभ के रूप में ही मेरा स्मरण रहे।
जीवन और सर्वचैतन्यमय का जन्म अस्पष्ट कुहरे से ही होता है—स्फटिक से नहीं।
कौन नहीं जानता कि स्फटिक उस कुहरे की क्षयोन्मुख अवस्था का रूप है।
मेरी इच्छा है कि मेरी स्मृति में तुम्हें यह भी स्मरण रहे कि,—तुम्हारे भीतर जो बहुत क्षीण
और अस्थिर वस्तु है वही सबल और सुदृढ़ है।
स्मरण रहे, तुम्हारी हड्डियों में प्राण भरने वाला श्वास भी बहुत क्षीण और अस्पष्ट
प्रतीत होता है।
और तुम्हारे भव्य प्रसादों को जन्म देने वाला भी वह धुँधला स्वप्न ही होता है जिसकी
तुम्हें याद भी नहीं रहती।
यदि उस प्राण की तरंगों को खोदने की शक्ति तुममें आ जाए तो तुम और सब कुछ
भूल जाओ।
और अगर तुम उन स्वप्नों की अस्पष्ट ध्वनि सुन सको तो तुम्हें अन्य शब्दों के श्रवण की
इच्छा ही न रहे।
किंतु तुममें उन्हें न देखने की शक्ति है और न सुनने की। और यह अच्छा ही है।
तुम्हारी आँखों के आवरण उन्हीं हाथों से उठाए जाएँगे जो वास्तव में उन आवरणों
का कारण है।
तुम्हारे कर्ण-कुहरों में भरी मृतिका को वही उँगलियाँ छिन्न कर सकेंगी जिन्होंने उसे
गूँथकर तैयार किया था।
तब, तुम्हारी आँखें देख सकेंगी।
तब तुम्हारे कान सुन सकेंगे।
तब, तुम्हें अपनी अंधता पर खेद न होगा और नहीं अपनी बधिरता पर शोकार्त
होना पड़ेगा।
कारण, उसी दिन तुम्हें सब चराचर चीज़ों के गूढ़ प्रयोजनों का ज्ञान होगा।
और तभी तुम अंधकार को भी इतना ही शुभ वरदान समझोगे जितना कि प्रकाश
को समझते हो।
इस प्रवचन के बाद उन्होंने अपने चारों ओर दृष्टिपात किया, और देखा कि जहाज़ के
नाविक पतवारों के समीप खड़े हैं। कभी वे वायु से भरे हुए पालों की ओर देखते हैं। और
कभी अपनी लंबी यात्रा की ओर।
और उन्होंने कहा :
मेरी नाव का कर्णधार अतुल धैर्यवान् है।
वायु का वेग बढ़ रहा है और पाल आतुर हो रहे हैं। और तो और पतवार भी चलने
की आज्ञा की प्रतीक्षा कर रही हैं।
फिर भी; मेरा धीर कर्णधार मेरे मौन की प्रतीक्षा में है। और, सदा महासागर का घोष
श्रवण करने वाले नाविक-वृंद ने भी मुझे बड़े धैर्य से सुना।
किंतु अब वे और अधिक नहीं रुकेंगे।
मैं तैयार हूँ।
निर्झर-धारा सागर तक पहुँच रही है—एक बार फिर जगत जननी अपने बालक को
गोद में ले रही है।
विदा, ऐ आर्फ़लीज-निवासियो! विदा!
आज का दिन समाप्त हो गया।
कमल की पाँखों के समान हम भी पुनः प्रभात-दर्शन तक अपने पंखों को समेटते हैं।
जो कुछ हमें यहाँ दिया गया, उसकी हम यत्नपूर्वक रक्षा करेंगे।
और यदि यह पर्याप्त नहीं होगा तो हम फिर यहाँ आकर इकट्ठे होंगे अपने दाता के
द्वार पर भिक्षा लेने के लिए हाथ फैलाएँगे।
भूल न जाना, मैं फिर वापस लौटूँगा।
बस, कुछ ही पल का विराम होगा; कि मेरी वासनाएँ किसी अन्य शरीर के लिए
मिट्टी और झाग बटोरेंगी।
बस, कुछ ही पल का विराम होगा, आकाश में घड़ी भर दम लूँगा कि कोई अन्य
जननी मुझे अपने गर्भ में धारण कर लेगी।
तुम्हें और तुम्हारे संग व्यतीत हुए यौवन को मेरा अंतिम प्रणाम है।
कल ही हमारी भेंट स्वप्र हो जाएगी।
कल ही मेरे एक एकांत को तुमने अपने गीतों से भरा था और मैंने तुम्हारे मनोरथों का
एक गगनचुंबी मीनार बना ली थी।
किंतु अब हमारी नींद समाप्त हो गई है; हमारे सपने टूट गए हैं और प्रभात की वेला
भी गुज़र गई है।
मध्याहन् समीप आया है, हमारी अर्ध जागृति के क्षण पूर्ण दिवस में बदल गए हैं, अब
हमें विदा लेनी चाहिए।
स्मृति की संध्या में यदि हमारा पुनः मिलन हुआ तो हम फिर मन की बातें करेंगे और
तुम मुझे फिर कोई मधुर गीत सुनाओगे।
स्वप्नों में यदि फिर हमारे साथ मिल गए तो फिर से हम आकाश में अपने मनोरथों की
मीनार खड़ी करेंगे।
यह कहते हुए उन्होंने मल्लाहों को इशारा किया। मल्लाहों ने लंगर ऊपर खींच लिया,
जहाज़ की डोरियों के बाँध खोल दिए और जहाज़ ने पूर्व दिशा की ओर प्रस्थान कर दिया।
उसी समय जनसमूह में से, सब शोकविद्ध हृदयों की चीत्कार के समान एक दर्द भरी
पुकार उठी, तो संध्या की धूमिल छाया में मिलकर समुद्र के तुमुल घोष में मिल गई।
केवल अलमित्रा ही मौन हुई जहाज़ को उस समय तक एकटक देखती रही जब तक
कि वह क्षितिज के धुँधलके में लीन नहीं हो गया।
जब सब लोग बिखर गए तब भी वह अकेली ही समुद्र-तट पर ध्यानमग्न खड़ी रही,
और अलमुस्तफ़ा के इन शब्दों को स्मरण करती रहीः
—कुछ ही पल का विराम होगा, आकाश में घड़ी भर दम लूँगा कि कोई अन्य जननी
मुझे अपने गर्भ में धारण करेगी।
- पुस्तक : मसीहा
- रचनाकार : ख़लील जिब्रान
- प्रकाशन : राजपाल एंड संस
- संस्करण : 2016
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