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‘नैपल्स’ के निकट लिखित पद

‘naipals’ ke nikat likhit pad

अनुवाद : यतेन्द्र कुमार

पर्सी बिश शेली

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पर्सी बिश शेली

‘नैपल्स’ के निकट लिखित पद

पर्सी बिश शेली

और अधिकपर्सी बिश शेली

    दिनकर की गरमाई फैली, नील गगन है अब निर्मल,

    त्वरित और चमकीली लहरें, नाच रही हैं सागर पर।

    नीलिम द्वीप और शोभित है पारदर्शिनी शक्ति प्रबल,

    नीललोहिता दुपहरी की, हिम-आच्छादित शैलों पर।

    गीली धरती का उच्छृवास मंद मंथर है रहा विचर,

    चारों ओर मुकुलहीना अपनी कलिकाओं के दल के,

    रूप अनेक स्वरों का घर कर एक हर्ष ही रहा बिखर,

    यही पवन में, खग-कलरव, में आप्लावन में सागर के

    और 'नगर' स्वर स्वयं-सभी कोमल 'निर्जनता' के स्वर से।

    (2)

    देख रहा हूँ मैं गहराई का अब यह अनमर्दित तल,

    हरित और बैंजनी समुद्री-तृणदल, बिखरा है ऊपर।

    देख रहा हूँ मैं तट पर आती वे लहरें उच्छृंखल,

    ज्यों तारों के झरनों में बिखरा प्रकाश है घुल-घुल कर

    बैठा हूँ मैं सागर तट के रेणुकणों पर एकाकी।

    दुपहरी के ज्वार भरे अर्णव से उठ-उठ कर द्युतिमय,

    घिरी चतुर्दिक मेरे फिरती, चमक झमक उस चपला की।

    नपी तुली गति में बँध कर के उठती एक अनोखी लय,

    कितनी मृदुमय! काश संग जो होता कोई अन्य हृदय!

    (3)

    आह! नहीं आशा है मेरे पास, स्वास्थ्य का शेष कण,

    नहीं शांति है मेरे मन में, मिली प्रशांति नहीं बाहर!

    और नहीं संतोष, तुच्छ जिसके समक्ष होता है धन,

    जिसको पाया संन्यासी ने मग्न साधना में होकर!

    विचरा करता जो अंतर-का गौरव-छत्र शीश पर धर,

    नहीं कीर्ति है, नहीं शक्ति है, नहीं प्यार, अवकाश नहीं,

    देख रहा हूँ औरों को मैं, जाता इन सबसे घिर कर!

    मुस्काते वे जीते, जीवन को कहते हैं हर्ष वही!

    पर मुझको—वह प्याली हाय! जाने कैसी भरी गई!

    (4)

    तो भी अब नैराश्य पिघल कर हो आया है स्वयं नरम,

    जैसे अब ये पवन और जल की धाराएँ हैं मृदुतर!

    काश! कहीं नीचे सो पाता, थके हुए बालक के सम!

    रो पाता मैं जो इस चिंताओं से पूरित जीवन पर!

    जिसको अब तक सहता आया, अभी और सहना जीकर,

    जब तक शयन समान काल की छाँह गिरती है मुझपर,

    और जब तक ऊष्म समीरण में पाऊँ मैं अनुभव कर,

    गाल शीत; जब तक सुनूँ मैं अपने मरते मानस पर,

    लेते हुए समंदर को, अंतिम निश्वास घुटन से भर।

    (5)

    अपनी शोकमयी वाणी में कह सकते कुछ, यदि शीतल—

    मैं होता, जैसे मैं हूँ जब बीत गया है दिवस मधुर!

    इतनी जल्दी बूढ़ा होकर, जिसका मेरा खोया दिल!

    अपमानित करता इसको—असमय यह शोक प्रदर्शन कर!

    कुछ शोकातुर कह सकते हैं—क्योंकि एक मैं ऐसा नर,

    जिसे प्रीत मनुज करते—तो भी होते हैं शोकान्वित,

    इस दिन के विपरीत—जोकि यह तब हो जाएगा दिनकर

    इसके दोषहीन गौरव के ऊपर—जब यह अस्तंगत,

    लटकेगा, तो भी सुखदायक—स्मृति में ज्यों उल्लास विगत!

    स्रोत :
    • पुस्तक : शेली (पृष्ठ 23)
    • संपादक : यतेन्द्र कुमार
    • रचनाकार : पर्सी बिश शेली
    • प्रकाशन : भारत प्रकाशन मंदिर, अलीगढ़

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