Font by Mehr Nastaliq Web

चम्पई सुबह

champee subah

रात भर टिप-टिपकर

सब का सब झर जाने के बाद भी

अनासक्त खड़ा है हरसिंगार

पूरे वातावरण को अपनी सुंगध से थामने के लिए

फिर अगले भोर, उतना ही—

खिल जाने के लिए

लताओं पर लटके

आसमान को ताक़ रहे हैं अपराजिता के फूल

सारी नीलिमा ख़ुद में भर लेने की हद तक

सफ़ेद हो जाने की

हर कीमत चुकाने को तैयार है चाँदनी

नरगिस और सूरजमुखी

तत्पर हैं अपने बदन पर हर पीलापन झेलने के लिए

हर साल विरह के मौसम में

बिखर जाता है पेड़

दूर हो जाती है उसकी देह को निभाती

‘लास्ट लीफ़’ भी

पर जब टहनियों में धड़कता है वसंत

तो फिर कोपलों को जगह देता है वह

प्रेम करता है दोनों शाखाओं को फैलाकर

टूटता है मन‌ कितनी ही बार

पर इसका यह मतलब तो नहीं

कि प्यार करना छोड़ दें

एकरसता में चिप-चिपी—

जब हर रात एक ऊब

बोझिल और नीरस कर देती

तब हर बार एक नूतनता रोक लेती है

मेरी आँखें, तुम्हारे चेहरे पर—

एक नयापन पुरानेपन के बीच

और पकड़ लेता हूँ पीछे से

तुम्हारे दोनों कंधे;

चूम लेता हूँ

तुम्हारी पलकों पर उफनती ताज़गी

हर चम्पई सुबह।

स्रोत :
  • रचनाकार : केतन यादव
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

Additional information available

Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

OKAY

About this sher

Close

rare Unpublished content

This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

OKAY