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मोन : किछु कविता

mon ha kichhu kavita

ज्योत्स्ना चन्द्रम्

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ज्योत्स्ना चन्द्रम्

मोन : किछु कविता

ज्योत्स्ना चन्द्रम्

और अधिकज्योत्स्ना चन्द्रम्

    एक

    इच्छा-मृत्यु

    लगैत तऽ सहज छै—

    सुविधाप्रद सेहो, मुदा

    इच्छा! सेहो मृत्युक?

    कते दुःसाध्य,

    कष्टकर होइछ—क्यो पूछए

    इच्छा-मृत्युक कामना कएनिहार

    वरदान पाबि लेनिहार सँ!

    सुख शान्तिक सेहन्ता लऽ

    चाहने छल मोन सहयोग—

    परिवेश, परिवार परिजन सँ...

    पौलक मुदा

    अशान्ति, दिग्भ्रान्ति—

    लक्ष्य अपन पाबि लेलाक बाद

    दू

    घरक भीड़मे फुलाइत हँसी

    गुम भऽ जाइत अछि

    एकान्त कें पबिते—

    ढेर रास प्रश्नक पाछू

    नहि जानि किए

    हम बुझि नहि पौलहुँ एखन धरि

    खुशी सँ चमकैत आँखि मे

    किए पसरि अबैत अछि शून्यता

    आ, स्वस्थ-प्रसन्न आकृति

    बनि जाइत अछि

    मरुथल सन वीरान

    ककरा सत्य मानए मोन?

    भीड़क एक हिस्सा

    हँसैत-मुस्किआइत ओहि आकृति कें

    आकि,

    हेराएल—औंघाएल सन

    उदास मिझाएल ओहि एकांत कें!

    तीन

    तनक दुख

    मोनक दुख

    दुनूक दुख तऽ दुखे अछि

    मुदा, एकटा लगैत अछि वास्तविक

    दोसर

    कल्पित, कृत्रिम अर्जित

    कोना कहए क्यो, जे

    ओकर इलाज तऽ

    सूइ औषधि सेहो अछि

    मुदा एकर?

    तँ लाइलाज अछि!

    तेँ भरिसक

    मोनक दुखी रोगी कें

    बताह कहि दैत अछि समाज

    चारि

    सादा पन्नापर

    उकेरल गेल आकृति

    साफ स्पष्ट भेल करैत अछि

    जकरा,

    खाहे तऽ मेटा सेहो सकैत छी

    अथवा,

    राखि सकैत छी

    सदा-सर्वदाक लेल सुरक्षित

    मुदा, ओहि पन्नाक ऊपर

    उकेरल गेल आकृतिपर

    उकेरल जाए

    जँ पुनः कोनो आकृति—

    सायास वा अनायास

    तऽ तकरा कोना मेटाओल जाए

    वा, राखल जाए?

    किए तऽ

    परस्पर ओझराएल

    आकृति सभ

    अस्पष्ट धूमिल भऽ उठैत अछि

    आ,

    एक कें मेटौने

    दोसरो

    मेटाएले सन देखाइत अछि!

    आ, जखन रहि जाइत अछि

    ओझराएल अस्पष्ट आकृति

    द्वन्द्वग्रस्त पन्ना

    ककरा जोगाबए

    ककरा मेटाब

    वा, कोना दुनू मे

    सामंजस्य बैसाबए मोन?

    पाँच

    नारी के मानलनि सभ

    वशीकरणक प्रतीक—

    केहन विडम्बना

    केहन अछि त्रासदी!

    इएह नारी

    रहलि सदा वशीभूत—

    कखनो भावनाक

    कखनो बलक

    कखनो छलक...

    आ, बनल रहलि

    परवश,

    विवश...

    केहन अछि मोन!

    केहन तकर प्रतीक!

    छओ

    कहि दियौ शब्दसँ

    नहि आबए हमरा बीच

    दू आँखिक गुमसुम भाषा

    कतहु रूसि ने रहए

    ओकर स्वरसँ

    ठोरक कम्पन

    लजाकऽ नुका ने रहए कतहु

    रोम-रोमक हाक

    दबि ने जाए ओकर भारसँ

    एखन बहुत किछु शेष अछि

    एखन बहुत किछु कहबाक अछि

    एखन बहुत किछु सुनबाक अछि

    अपन एकान्तक घर मे

    सजएबाक अछि सपना

    स्पर्शएबाक अछि घाव...

    प्रायः, फेर

    शान्त-सुन्दर सन क्षण

    आबए, ने आबए—

    मोनक सीपमे बन्दकऽ

    मोती सन दमकऽ दी एकरा!

    स्रोत :
    • पुस्तक : समग्र ज्योत्स्ना (पृष्ठ 31)
    • संपादक : विभूति आनन्द
    • रचनाकार : ज्योत्स्ना चन्द्रम्
    • प्रकाशन : नवारम्भ
    • संस्करण : 2017

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