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मेरे गाँव में

mere gaanv mein

दीप्ति कुशवाह

दीप्ति कुशवाह

मेरे गाँव में

दीप्ति कुशवाह

और अधिकदीप्ति कुशवाह

    बरगद के नीचे अब भी 

    सिर झुकाती हैं आस्थाएँ

    नागदेवता के लिए रखे जाते हैं दीए

    चीटियों की बाँबी पर

    झूला झूलते हैं कजलियों के दोने 

    मेरे गाँव में

    फसल वाले खेत में नहीं जाते यहाँ 

    आज भी चप्पल पहन के 

    फलते-फूलते पेड़ को काटने से 

    बचते हैं लोग 

    डरते हैं पेड़ के सराप से 

    नौरातें के अंतिम दिन 

    कन्याखवाई में 

    आती है ज़ुबेदा

    रच देती है उसके पैर 

    महाउर से खवासन फुआ 

    जब अम्माँ के हाथों 

    लीपी गई हो गोबर से दहलान 

    तो बहुएँ रखती हैं क़दम 

    पहले धरती को सिर नवाकर 

    औरतें सुई-धागे से गोठ मार लेती हैं 

    साड़ी में खूँत लगने पर 

    रेल में अगर कोई

    पूड़ियों के ऊपर अचार रख

    'पाओ जी' कहकर

    बढ़ाए सहयात्री की ओर

    समझ लेना

    वह गाँव का है मेरे

    आज भी माँगे जाते हैं यहाँ

    इच्छापूर्ति के वरदान

    टूटते तारों से

    प्रार्थनाओं में भरना हो हरापन

    तो मेरे गाँव आएँ

    मिल जाएगा ईश्वर भी

    हैंडपंप से पानी पीता हुआ

    चुल्लू लगाकर।

    स्रोत :
    • रचनाकार : दीप्ति कुशवाह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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