उन रहस्यमय पगडंडियों से होते-होते
उन बीहड़, वीरान जंगलों से
जहाँ साँपों का सरकना
झींगुरों का शोर ही सुनाई देता है
और बाक़ी वह सन्नाटा
जो दिल की धड़कनें
तेज़ कर देता है
उन काली बिल्लियों की
चमकती आँखें
बड़ी डरावनी लगती हैं
उनके पैने दाँतों से
चमकती है उनकी भूख
कोई मांस का टुकड़ा
ख़ून में लिथड़ा हुआ
शायद मेरा ही
यह कैसा भय है
मौत का
या उस तड़प का
जो कटी-छँटी देह से पैदा होती है
जो रिसते हुए ख़ून को देखकर
चीख़ती है
वह दर्द
जिसे सहते-सहते
बेहोशी छा जाती है।
वह सामने की काली गुफा
जैसे किसी चमगादड़ का
खुला मुँह है
उसमें से झाँकता है अँधेरा
घना, घनघोर, विकराल, भयानक
सूखे पत्तों पर पड़ते पैर
चर्रर...चर्र... की आवाज़
कि जैसे
कोई चीरकर बच्चों का कलेजा
उनके नरम गोश्त को
आग में पट्... पट्...
सेंक रहा हो
कोई अदृश्य-सी शक्ति
मुझे खींच रही है
उस गुफा की ओर
मैं गिरता हूँ
गिड़गिड़ाता हूँ
मुझे बख़्श दो...
पर
वह खींचता है
कि जैसे मैं कोई
पट्टेवाला कुत्ता हूँ
रहने दो, बस एक बार...!
मैं घिसट रहा था
और आँखों से पानी बहता जाता था
लगातार
वह गरम पानी
उसकी गरमाहट से
सुन्न हो रहा था शरीर
बस, जैसे कुछ बह रहा था
मेरे चेहरे पर—
वे आँसू थे।
फिर
एक झटका
और मैं पटक दिया गया
उस गुफा के भीतर
जहाँ अँधेरा था
सुनसान
बस सन्नाटा ग़ुर्रा रहा था
वह
पच्... पच्...
मैं कीचड़ में सन गया था
उस कीचड़ में
कुलबुलाते कुछ कीड़े कुछ जोंक
जो चिपटे जाते थे शरीर से
पर मैं धँसा था
ख़ुद को इस यातना से निकालने में
अशक्त
काश, वह बेहोशी होती...!
सब कुछ ठंडा-सा है
पर ठंडापन काटता है,
उसके नुकीले नाख़ून
छेदते हैं
प्राण को।
आख़िरकार वह वमन
जिसमें मैं ही नहाया था
उसकी गंध से
मेरी अंतरात्मा
बहक गई थी
अब केवल वह हँसी है
वह अट्टहास
शायद, ये विक्षिप्तता के लक्षण हैं।
हाँ,
मैंने देखा है
उस कालेपन को
उन दो जोड़ी आँखों को
जिन्होंने मेरी बाँहें पकड़ रखी थीं
मुझे अशक्त कर दिया था
मुझे घसीटा था
मेरी लाचारी पर
जिन्होंने चिढ़ाया था
मैंने देखी है
मैंने देखी है उनकी क्रूरता
उनकी असलियत
मैंने देखा है सच को
नंगा, पूरा नंगा
किसी नंगी लाश की तरह
जो जलने को तैयार की जाती है।
- रचनाकार : शशि शेखर
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए अदिति शर्मा द्वारा चयनित
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