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मैं क्यों लिखता हूँ

main kyon likhta hoon

प्रशांत रमण रवि

प्रशांत रमण रवि

मैं क्यों लिखता हूँ

प्रशांत रमण रवि

और अधिकप्रशांत रमण रवि

    कुछ लोग नहीं चाहते

    कि मैं बना रहूँ—

    कम-से-कम वैसा

    जैसा मैं,

    हर रोज़

    टूट-टूटकर

    बनने की कोशिश करता हूँ।

    वे चाहते हैं

    कि मैं भी

    किसी झुँड में खो जाऊँ,

    किसी नाम के पीछे

    अपना नाम मिटा दूँ—

    या फिर

    सीख लूँ तालियाँ बजाना

    किसी और की विफलता पर।

    पर मुझे क्षमा करें—

    मैं अब भी

    सिर्फ़ एक मनुष्य

    बचा रहना चाहता हूँ।

    मैंने बहुत पास से देखा है—

    शब्दों की ओट में तनी कटारें,

    मुस्कानों में छिपे व्यंग्य,

    और प्रशंसा के आवरण में

    लिपटा अपमान।

    लेकिन यह भी सीखा है—

    हर तीर, युद्ध नहीं होता,

    हर आलोचना, शत्रुता नहीं होती।

    मैं जानता हूँ कि—

    प्रेम हर बार भीतर से नहीं फूटता।

    कुछ चेहरे हैं

    जिनका स्मरण मात्र

    मन के भीतर

    कठोरता की परतें जमा देता है—

    जैसे किसी निर्जन कुएँ में

    बर्फ़ उतरती हो

    धीमे-धीमे, चुपचाप।

    फिर भी मैं उन्हें समझना चाहता हूँ,

    जैसे कोई पुराना बढ़ई

    किसी चरमराते किवाड़ की आवाज़ में

    लकड़ी का दुःख सुन लेता है।

    मैं ख़ुद से पूछता हूँ—

    क्या मेरी भाषा में अब भी करुणा बची है?

    क्या मेरी दृष्टि

    अब भी किसी टूटे हुए को

    पूर्ण देख सकती है?

    क्या मेरे लिखने में

    अब भी वह पुकार है

    जो केवल चोट नहीं देती—

    मरहम भी रखती है?

    और जब इतना सोच चुकने के बाद भी

    मेरे भीतर से

    एक धीमा, ईमानदार स्वर उठता है—

    लिखो

    तो मैं जानता हूँ—

    मैं अब भी पूरी तरह खोया नहीं हूँ।

    मेरे शब्द

    कभी धार बनते हैं,

    कभी दुआ।

    पर उनकी नीयत साफ़ है—

    वे किसी पर गिरते नहीं,

    वे सिर्फ़ उजाला करना चाहते हैं।

    इसलिए जब कोई पूछे—

    तुम क्यों लिखते हो?

    तो मैं कहूँगा—

    कि मैं मनुष्यता बचा लेना चाहता हूँ—

    और सबसे पहले, ख़ुद को।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रशांत रमण रवि
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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