मैं जान नहीं सकता कि किसी और को यह देश कैसा लगेगा, यह
छोटा-सा मुल्क आग से घिरा हुआ, मेरे लिए यह एक घर है, जिसमें
दूर मेरे बचपन की दुनिया झूल रही है, जैसे तने से एक कोमल डाल
फूटती है उसमें से मैं उगा और उम्मीद करता हूँ कि एक दिन मेरा
शरीर इसी की ज़मीन में मिल जाएगा।
यहाँ कहीं भी रहूँ हमेशा अपने घर में हूँ और जब कभी कोई झाड़ी
मेरे पैरों पर झुकती है तो मैं उसका नाम जानता हूँ और उसके फूल
का नाम भी बता सकता हूँ। मैं लोगों को जानता हूँ और जानता हूँ
इस वक़्त वे कहाँ जा रहे हैं। और जानता हूँ गर्मी के सूर्यास्त में
इसका क्या मतलब हो सकता है कि दीवारों से लाल-सा दर्द टपके।
जो हवाबाज़ ऊपर उड़ता है उसके लिए यह देश सिर्फ़ एक नक़्शा है।
वह नहीं जानता कि कवि वोएरोशमार्ती कहाँ रहता था।
उसके लिए इस नक़्शे में कारख़ाने और नाराज़ बैरके छिपी हुई हैं
मेरे लिए टिड्डे, बैल, गिरजाघरों के कंगूरे, भले मुलायम खेत।
वह दूरबीन के ज़रिए क़ारखाने और जुते खेत देखता है
मैं काँपते हुए मज़दूर को देखता हूँ जिसे अपने काम का डर है
मैं जंगल देखता हूँ, गीतों से भरे बाग़ान, अंगूर के खेत, क़ब्रस्तान
और एक छोटी बहुत बूढ़ी औरत जो क़ब्रों के बीच रोती जा रही है।
और ऊपर से जो रेल की पटरियाँ दिखती हैं या मशीनघर जिन्हें मिटा
देना है
वह नीचे एक लाइनमैन की झोपड़ी है जिसके सामने वह खड़ा हुआ
लाल झंडी दिखाता हुआ और बच्चे उसे घेरे हुए हैं
मशीनघर के बाड़े में एक कुत्ता लोटपोट होता हुआ खेल रहा है
और वहाँ पार्क में मेरी पुरानी प्रेमिकाओं के क़दम अब भी बने हुए हैं
उनके मीठे चुंबन अब भी मेरे होठों पर हैं, शहद की तरह साफ़।
और एक बार स्कूल जाते वक़्त सड़क के किनारे मैं एक पत्थर पर
बैठ गया था कि उस दिन इम्तहान से बच जाऊँ—
यह रहा वह पत्थर—क्या उतनी ऊँचाई से उसे देख पाते हो?
कितनी भी कोशिश करो नहीं देख सकते उसे
उसकी सारी बारीकियों के साथ— ऐसा कोई यंत्र अभी नहीं बना है।
हम गुनहगार हैं बेशक, जैसे दूसरे देश भी हैं
हम जानते हैं कि हमने कैसे हदें तोड़ी हैं, कब कहाँ और किस तरह
लेकिन यहाँ बेगुनाह कामगार भी रहते हैं और कवि भी
और दूध पीते बच्चे जिनमें चेतना अभी जाग रही है
और उनमें दमकती है; वे उसे बचा रहे हैं, अँधेरे तलघरों में छिपे हुए
जब तक कि शांति अपनी उँगली से इस देश को फिर से उकेर न दे
और तब वे हमारे घुटे हुए शब्दों को साफ़ और ऊँचे शब्दों में कहेंगे।
रात के रखवाले बादल, हम पर अपना विराट पंख फैला लें।
- पुस्तक : प्यास से मरती एक नदी (पृष्ठ 220)
- संपादक : वंशी माहेश्वरी
- रचनाकार : मिक्लोश राद्नोती
- प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
- संस्करण : 2020
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