एक
क्या वह दिखाई पड़ा
कि सो गई थी मैं
उसी को सोचते?
अगर मैं इतना भी जान गई होती
कि यह सपना था
कभी न जागी होती।
दो
बहुत प्रबल हो जाती हैं जब
मेरी इच्छाएँ
ओढ़ लेती हूँ मैं पलट कर
बिस्तर की चादरें
गहरी, जैसे रात की मोटी परतें।
तीन
गहरी हो जाती है रात
हिरन की पुकारों से
सुनती हूँ मैं
अपना इकतरफ़ा प्यार।
चार
यदि यह एक सपना था
फिर से देखूँगी मैं तुम्हें,
क्यों छोड़ दिया जाए अधूरा ही
जागा हुआ प्रेम!
पाँच
कोई तरीक़ा नहीं उसे देख पाने का
चाँद के बिना इस रात में,
पड़ी हूँ मैं जागती हुई इच्छा में जलती,
दौड़ती है आग सीने में
दिल धधकता है।
छह
कहने-भर को है लंबी
शरद की रात,
एक दूसरे को तकने से ज़्यादा
कुछ नहीं किया हमने—
भोर तो हो चुकी पहले ही।
सात
छोड़ नहीं देता गोताखोर
समुद्री शैवालों से भरी घाटी
तब क्या तुम मोड़ लोगे मुँह
तिरते हुए समुद्र-फे़न की इस देह से
जो इंतज़ार करती है
तुम्हारी फैली हुई बाँहों का!
आठ
इस सुबह
मेरी सुबह की ख़ुशियाँ तक छिपी हैं
दिखाना नहीं चाहती मैं
नींद में छितराए उनके केश।
नौ
एक पल भी नहीं, हालाँकि,
बिना लालसा के,
फिर भी कितने अद्भुत तरीके़ से
भर रहा मुझे
शरद की साँझ का यह
धुँधला उजाला।
दस
साँझ के धुँधले उजाले में
गाती है चिड़िया मेरे पहाड़ी गाँव की
कोई नहीं आएगा आज की रात
इस सुर को बचाने।
ग्यारह
इतनी गहरी है मेरी चाहत
तुम्हारे लिए
कि रखा नहीं जा सकता उसे
हदों के बीच
कम से कम,
कोई नहीं, जो दोष मढ़े मुझ पर
जब चली आती हूँ मैं तुम्हारे पास
रात में
सपनों के रास्ते।
बारह
जानती हूँ
इसी तरह होना है यह
इस जागती हुई दुनिया में,
पर कितना निर्मम
कि सपने में भी छिपती हूँ मैं
पराई नज़रों से।
तेरह
अकेलेपन के साथ
जगी हूँ आज की रात,
नहीं बचाए रख सकती अपने को
सलोने चाँद के लिए
इस इच्छा से।
चौदह
प्रेम की दुनिया का अंत
क्या अँधेरे में ही होना हुआ
हमारे झलक-भर देखे बगै़र
उन बादलों के बीच
चाँद का उजाला जहाँ
पूरता है आसमान।
पंद्रह
मेरे दिल ने बैठा दिया है मुझे
तुम्हारे जाते हुए जहाज़ में जबसे
एक दिन ऐसा नहीं बीता
जब ठंडी फुहारों से मैं
सिर से पाँव तलक नहीं भीगी।
सोलह
लहर, जो पीछा करती है
हवा के सबसे कोमल स्पर्श का
क्या इसी तरह चाहते हो तुम
मेरा तुम्हारे पास चले आना?
सत्रह
लौटते रहते हैं मेरे तट पर
समुद्री शैवाल बटोरने वाले के
थके-माँद पाँव,
नहीं जानता वह
कोई फ़सल नहीं उसके लिए
इस बेपरवाह खाड़ी में?
अठारह
पिछले जाड़े के मेहमान-सी है
यह उलझती हुई हवा,
आँसुओं की ओस बस्स् नई है
मेरी आस्तीन पर।
उन्नीस
किसी दूरवर्ती शिखर के आसपास
होंगे जमा वे सफे़द बादल
सोचा था मैंने,
लेकिन पहले ही वे
घिर चुके हैं हमारे बीच।
बीस
लगता है आ चुका समय
जब होते हो तुम
उन घोड़ों-से जंगली
लपकते हुए जो
चाहा करते हैं दूर के खेत
धीमा कुहासा जहाँ उठा करता है।
इक्कीस
मैंने अपने लिए चुनने की सोची
विस्मरण का फूल,
पर देखा
वह आकार ले रहा था उसके दिल में
पहले ही।
बाइस
जैसे दलदल पर फुहारें
दुलते हैं मेरे आँसू
मेरी आस्तीन पर
उसके बिन सुने।
तेइस
ठंडा हो चुका उसका दिल
बन गया है मेरी देह का जाड़ा
कितने ही दुख भरे शब्द
गिर सकते हैं अभी भी
सरसराते हुए
पत्तों की तरह।
चौबीस
कितना दुखद है
कि इस वक़्त मैं उम्मीद कर रही हूँ
तुम्हें देख पाने की,
अपने को खाली कर लेने के बाद
मेरा यह जीवन
जैसे धान की बालें
शरद की हवा में।
- पुस्तक : सूखी नदी पर ख़ाली नाव (पृष्ठ 107)
- संपादक : वंशी माहेश्वरी
- रचनाकार : ओना नो कोमाची
- प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
- संस्करण : 2020
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