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कोणार्क

konark

अनुवाद : शंकरलाल पुरोहित

भानुजी राव

अन्य

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भानुजी राव

कोणार्क

भानुजी राव

और अधिकभानुजी राव

    हम सब शहरी लोग

    निकले हैं देखने कोणार्क

    अचानक मोटर की लाल माटी

    उड़ाते-उड़ाते, मुँह में चुरुट,

    कंधे पर झुलाते हुए थैली!

    हम सब सटे पास-पास

    निकट हैं, पंजाबी और चोली

    हम सब हैं भद्र लोग

    चमकते सोने के बोताम

    ताश और ग्रामोफ़ोन, बोतल में रम!

    शहरी सीमा से दूर सूना

    एकांत ग्राम

    पता नहीं क्या है उसका नाम

    वहीं टिके हम, डाब की प्यास ख़ूब,

    कौन वह किशोरी

    शांत दोनों आँखें

    गाय की आँख-सी निरीह!

    चुपचाप बैठा हूँ

    होश कहीं कुछ खोए हुए

    संगिनी ने दिखाया बाँस के झुरमुटे की ओट में

    सामने कपोत,

    कहीं धान के खेत

    कहीं झाऊ और काजु के झुरमुट अनेक

    किसी की छान पर लौकी

    हमने ये सब देखा

    दिन ढलने से पहले-पहले

    और फिर आधी रात,

    पुन्नाग के पत्तों के मरमर में

    चाँद आता ऊँचे

    विस्तीर्ण घास की चटाई

    जादूगर आकाश लाता

    कितनी छोटी-बड़ी छाँव!

    ये सब देखे हमने

    धूल और चुरुट के धुँआ में,

    कभी तुमने देखा है कोर्णाक?

    सुर्ख होंठ वाली लड़की पूछती—

    अलस-कन्या की छाती क्या

    सचमुच पत्थर से बनी?

    दाँत भींच हँसी वह,

    उसकी हँसी क़ीमती है बहुत

    और फिर अनेक झाऊ

    लाँघकर बालू के खंड कई

    पारकर गोप और नीमापाड़ा

    सोचता हूँ कितने बड़े कोर्णाक के

    बने हैं हाथी और घोड़े!!

    यहीं रुका था।

    मुर्ग़ के हाड़ लिए कुत्ता

    सूखे चबा रहा?

    अंडे के खोल और माछ-काँटे

    चारों ओर बालू।

    यही है डाक बंगला

    झूलता पंखा, आराम चौकी

    निश्चित नींद का आराम,

    यह नहीं कोई शौक़ीन!

    लेटे-लेटे सोचता हूँ

    भूल जाऊँगा आगे-पीछे

    पूछा था ज़रा हँस, आँख उठा

    भ्रूलता नचाकर

    उस लड़की ने फिर मुझसे—

    तुमने देखा है कोर्णाक?

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 97)
    • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
    • रचनाकार : भानुजी राव
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2009

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