ख़ूबसूरत

khubsurat

संध्या चौरसिया

संध्या चौरसिया

ख़ूबसूरत

संध्या चौरसिया

और अधिकसंध्या चौरसिया

    सुंदरता के प्रचलित मानकों की तर्ज़ पर

    हर दूसरी लड़की की तरह

    मैं चाहती हूँ ख़ूबसूरत दिखना

    पर हर बार काजल, बिंदी लगाते

    संशय में रहती हूँ थोड़ा

    संकोच के भार से

    झुमके थोड़े हल्के पहनती हूँ

    कि इनको देखने वाली तिलस्मी आँखें

    इनका मतलब मेरी पहचान का विराम समझ लें

    संशय में रहती हूँ कि मेरी तस्वीरों से

    उनको आती होगी मेरे सीने की गंध

    कि जिसको सूँघता हुआ किसी चाँद रात में

    वो देखे मेरी देह तक पहुँचने का कोई ख़्वाब

    मेरी कोमलता का थोथा भान कराने के लिए

    बहाने से मुझे असमर्थ बताने के लिए

    तुम मुझसे ये कह दो कि

    'तुम्हारे पाँव बहुत हसीन हैं

    ज़मीन पर रखना इन्हें

    मैले हो जाएँगे!'

    बेहतर हो किसी गर्मी की दुपहर

    इमारतों के संरक्षण से दूर

    किसी घने पेड़ की छाँह में

    तुम सुनाओ मुझे आलोकधन्वा की

    ‘भागी हुई लड़कियाँ’

    मेरे भीतर कौंधता है एक सवाल

    कि तुमसे ही कविता क्यों सीखूँ मैं

    मेरे आईने के चौकोर फ़्रेम में

    तुम्हारी ही दृष्टि का कोण क्यों देखूँ मैं

    तभी अचानक मेज़ पर रखी इतिहास की क़िताब

    बोल उठती है—

    वह तुमसे पहले निकला था शिकार को

    उसको मांस तुमसे जल्दी पचता है

    भरसक तुमसे ज़्यादा सहा हो पर

    तुमसे ज़्यादा रचा है उसने सभ्यता को

    तुम्हारे जेंडर का अतीत

    आग की जिन विविधताओं में झुलसा

    उस विविधता के हर प्रकार से

    जड़ा गया एक नया हथियार

    जिससे उसने जीते असंख्य संग्राम

    और पौरुषता की परिभाषा में बहाने से जोड़ दिया

    तुम्हारे संरक्षण का दायित्व

    मैंने लोगों को कहते सुना है कि

    महज़ एक साज़िश है ये माँग

    कि बिकने चाहिए बाज़ार में

    बिना फ़्रेम के भी आईने

    जैसे फ़्रेम का महीन घेरा ही सुरक्षात्मक प्रहरी हैं आईने के

    मैं चाहती हूँ कि कुछ आईने गिरकर टूटें भी

    ताकि उनके टूटने की घटना दर्ज हो इतिहास में

    पर किसी कविता की कोई पंक्ति में

    इस घटना के साथ कभी जुड़े

    ‘मर्दानी’ जैसा कोई विशेषण

    मैं नहीं चाहती प्रसव-पीड़ा के बदले

    जगत-जननी की कोई उपाधि

    तुम इतनी चेतना बना लो बस

    कि मैं नहीं अकेली सर्जक इस सृष्टि की

    तुम हो एकल इसके तारणहार

    कि मैं संबंधों की सीमा से परे

    हर तत्व की संभावना में हो सकती हूँ कहीं

    मेरे शब्दकोश में 'मुक्ति' का अर्थ

    नहीं था कभी तुमसे पलायन

    क्योंकि मैं भी कभी उस चाँद रात में

    खोजती हूँ कोई मनचाही गंध

    पर तुम्हारी तरह उसे किसी शीशी में भरकर

    नहीं देती ‘इत्र’ जैसी नायाब संज्ञा

    उसके नाम लिखती हूँ एक कविता

    समाज जिसका शीर्षक ‘बेग़ैरत’ रख देता है

    मैं नहीं चाहती इतिहास के हवाले

    कोई सहानुभूति बटोरना

    मैं चाहती हूँ

    तुम इतनी चेतना बना लो बस कि

    ज्ञान, बोध और सत्य का

    सामर्थ्य, साहस और सफलता का

    नहीं होता कोई जेंडर

    मैं चाहती हूँ

    तुम्हारी बनती चेतना में हो

    बस इतनी सच्चाई

    कि तुम्हारा ख़ूबसूरत कहना

    मुझे कोई 'अपशब्द’-सा लगना बंद हो जाए।

    स्रोत :
    • रचनाकार : संध्या चौरसिया
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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