खेलती है वसंती हवा
झुकने में अक्षम टेलीफ़ोन के खंभे से
नहीं है कोई फूल या कली बिखरने के वास्ते
अपनी जवानी का प्रतीक
टाँगती हूँ खिड़की में
एक पौधा कहते हैं जिसे दुल्हन का घूँघट
बंद करती हूँ लिखना, लगाती हैं
टिकट और बीतने लगता है समय
प्रतीक्षा में तुम्हारे उत्तर के क्षण की
क्यानलिंग की चोटी पर हवा
निहारती हूँ नीचे
खेतों का अनंत मोज़ेक
ज्यांग नगर में
जहाँ खड़े होते हैं सभी फल
जनम लेता है प्रातः कालीन समीर
थक जाती है मेरी आँखें
इतने विस्तृत खेतों के बीच
हँस देते हैं वो मेरे शब्दों पर
ट्रेन चली जा रही है लगातार
पश्चिम की ओर
बंद कर लेती हूँ आँखे कामना करने समुद्र की
रूमाल बिछी मेरी गोद में
गर्म और चौकोर
हाँग झू नगर है शारीरिक उष्मा का
वह करता है मुझ से प्यार
जैसे देखती हूँ मैं अपनी घड़ी
सन्नाटा भर जाता है मेरे हृदय में
याद कर तुम्हारे चुटकुले
खिलखिला पड़ती हूँ ज़ोर से
भरी भीड़ के बीच
मनोरम—
गोधूलि होते ही पार्क में
गर्भवती नारी की चाल
मेरे इक्कीसवें साल का मई
मातृत्व शब्द हैं
एकदम अमूर्त
अस्सी किलोमीटर घंटे की रफ़्तार
चिपकी तुम्हारे पीठ से मैं हूँ हवा—
अब केवल मेरी बाँहें हैं तुम्हारे चारों ओर
मैं चाहता हूँ तुम्हें माची तान कहने पर
मेरा हृदय चाहता है भागना उस के पीछे
खेल खेलते बच्चों की तरह
उगता हैं पांडुर सूर्य—
यह हेमंत का पूर्वाभास
तुम्हें खो देने का
अगर नहीं चाहता कोई तुम्हें
उन्तीस की होने पर
पुकारना मुझे, कहलवा लेती हूँ मैं उस से
दिन के अंत में पड़े हैं मेरी
अँगुलियों पर-थोड़ा धुँधलाए—
काटैक्ट लेंस
सचमुच, तुम देख लेते हो सब कुछ
क्या ऐसा नहीं है अब
कहती हूँ मैं धीरे से नन्हें गोल लेंस से
पोंछो थोड़ा और ज़ोर से मेरे काटैक्ट लेंस
मानो साफ़ की जा रही हो गर्द
उस सबकी जो देखे हैं उसने
ख़रीदा एक वाचाल जन्म-दिन-कार्ड—
शब्दों का जमावड़ा—
ढकने के लिए अपना ख़ालीपन
मत भूलना हवाई जहाज़ के
टूटे पंख गाड़े थे जिन्हें
हम ने एक साथ बालू के ढेर में
एकाकीपन बहता पहुँच जाता है
दिसंबर में—मेरे जीवन में एक धन एक
होता है हमेशा ही दो।
प्राचीन प्रेम कविताएँ
छूती है मेरा हृदय आज की साँझ
प्रत्येक को मैं देती हूँ एक-एक तारा
इस्तेमाल करती तुम्हारे बालों का ब्रश
सुलझाने के लिए अपने बाल
पाती हूँ आस्वाद तुम्हारी पुरुष-गंध का
तीस तक करूँगा सैर
जीवन की कहती हो तुम, होता है
अचरज कौन-सा दृश्य हूँ मैं तुम्हारे लिए
साँझ, और सोचती हूँ मैं—
कितने लंबे थे उस लड़की के बाल
जो रही तुम्हारे साथ इस कमरे में
क्या नहीं पड़ गए हो
एकाकी, झूलते बीच हवा के
तैरते हो तुम जीवन में—अनासक्त
समझती हुई उस आदमी का
छोटापन जो सोचता है महज़ मेरे बारे में
पर विवश चाहती हूँ तुम से ऐसा ही
मानिंद उसे बर्फ़ में जो गिरती है
वहाँ से जहाँ रहती है मेरी माँ—
अकेलापन टोकियो शहर का
फ़रवरी का प्रारंभ—
अगले दो माह
सब कुछ है स्मृति
एक मिनट पहले पहुँच कर स्टेशन पर
बिताती हूँ कुछ पल
सोचती तुम्हारे बारे में
चंद्रमा पूर्णिमा के बाद की रात का
धागे जैसे भी थे वो जोड़ते थे हमें
चटक कर टूट गए।
कितनी मधुर है बारह की संख्या—
मैं जीती हूँ सुनने के लिए
तुम्हारी आवाज़ आधी रात को
क्या नहीं बचा है नया प्यार?
दरअसल बिना किए तलाश
साँझ की बेला बुदबुदाती हूँ ख़ुद से
बिन देखे तुम्हें हफ़्ते भर बाद
अब कितनी तेज़ हो उठी है गंध
देर तक पकाई गई मूली सरीखी
वह करता है और नहीं करता
मुझ से प्यार, काश मेरे पास होता
उतना ही प्यार जितनी कि पंखुड़ियाँ।
अब कर लो किसी भले से ब्याह
चुंबन के साथ कहता है ये भला मानुष
और नहीं ब्याहता मुझे।
साँझ—यह आदमी
जो छोड़े जा रहा है मुझे, खींचता है
ईमानदारी से मेरा चित्र
मेरे चौकन्नेपन की शुरुआत
करता उजागर खड़ा है सीधा
सावधान की मुद्रा में कोने का लेटर बॉक्स
एक पत्र सराबोर प्रेम से—
प्रेम जो है उस तारीख़ का
उस पर छपी है डाक-मुहर
जानती हूँ तुम्हारे हैं अपने शनिवार—
मेरे तो बीतते हैं
अनदेखा करने के बहाने
अस्वीकार कर दो मेरा चौथा निमंत्रण ही
रविवार को मैं करती नहीं कुछ भी
यह दिन है मेरा अपना
तुम्हारे कठोर आचरण के
नीचे दिखता है मुझे एक लड़का
जिसका आकाश है व्यापक और नीला
वसंत की गली में तैरते साथ-साथ
आज तीसरे पहर चाहती हूँ
दिखे जाना सब की निगाह से
- पुस्तक : सूखी नदी पर ख़ाली नाव (पृष्ठ 126)
- संपादक : वंशी माहेश्वरी
- रचनाकार : माची तवारा
- प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
- संस्करण : 2020
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