कामना
kamna
वह चेहरा
जी धीरे-धीरे काला पड़ता गया
और फिर
झड़ता गया
भरभराता
गिरने लगा
किसी धूल की भीत की तरह
क्या झाड़ता रहेगा
दीवार का वह रंग-रोगन
परत-दर-परत उजड़ती जाएगी
पपड़ियाँ टूट-टूटकर
ढेर हो जाएँगी
फिर क्या बचेगा—
बस सूनापन
जो बेरंग है
जो निष्प्राण है
जिसमें साँस नहीं
कोई सिहरन नहीं
जो बस ताकता रहता है
दूर क्षितिज को
चुपचाप...
वे स्मृतियाँ जिनकी
परछाईं आँखों की
पुतलियों पर बनती है
क्या है वे
कैसी हैं?
नंगी अधखुली देह की वह चमक
वे छोटे-छोटे रोएँ
जो झाँकते थे
बाहर को
बड़े ही कोमल
जिससे आकर चिपट जाती थीं
सारी कामनाएँ फिर
पसीने की वह बूँद
जो त्वचा से बाहर आती थी
रोओं में उलझकर
रोशनी में
मोती बन जाती थी
फिर वह यात्रा
वह सरक-सरककर
बदन की गोलाइयों को छूना
एक कंपन-सा जगाता था
एक ठंडक सी मिलती थी
जब हवा उससे स्पर्श करती थी,
देह के भूगोल में
वे उभार
वे ढलानें
जिन पर रोशनी की रेखाएँ भी
आड़ी-तिरछी होकर नाचती थीं
त्वचा की नरमी पर
आकर ठहरती थीं
फिसलती थीं
गुदगुदाती थीं
रह-रहकर छाती में
कोई हूक जगाती थीं
कोई पीड़ा
कोई पहले का अभाव
कोई असिंचित तृष्णा
जैसे यह शरीर
किसी को पुकारता हो
अपनी कमियों का हवाला देता हो
फिर एक तड़प-सी जागती थी
देह इधर-उधर को
हिलती थी काँपती थी
उठकर गिरकर मचलती थी
किसी लहर की तरह
किनारे को छूने को बेकल होकर
साँसों के सिलसिले में
उलझकर
करवटें बदलती थी
चिरंतन प्यास की वह रेखा
कुछ क्षणों में
ढलती जाती है
जैसे मौसम का तापमान
गिर जाता है
और पाले-सी सर्दी में
मन ठिठुरने लगता है,
क्या कभी देखा था—
बदन पर उभर आई
नीली नसों को
जैसे गंदे केंचुए देह पर
रेंग रहे हों,
आँखों के चारों ओर की
कालिमा को
जैसे गोरी देह पर
किसी ने कालिख मली हो
कोई काला धब्बा छोड़ा हो,
वह तनकर खिंची हुई त्वचा
जो ढीली पड़ गई
लुंज-पुंज-सी
लटकने को,
देह ढलने लगी
सब कुछ जैसे शांत हो
कानों में बस
साँय-साँय की आवाज़ बची हो
कलेजे में बहता
ठंडा ख़ून बचा हो,
मन में बस कामनाएँ हों
जो हँस-हँसकर चिढ़ाती हों
आकर
किसी बिच्छू-सा
काट जाती हों
जिसके ज़हर से
सारी देह नीली पड़ने लगी हो,
गरम तेल में
छन गई किसी छिपकली जैसा
रंग हो
बदन पर फफोले उठे हों
मुँह से लार बहती हो
जिस पर चीटियाँ चल रही हों
देह पर कोई वश नहीं—
उसी बिस्तर को
गीला करके
उसमें
छटपटाते हों, छपछपाते हों
हाथ-पैर मारते हों
चिल्लाने की कोशिश करते
एकाएक
बंद पड़ जाते हों
जैसे
किसी ने एकाएक
बत्ती बुझा दी हो और
सब ओर अँधेरा हो।
- रचनाकार : शशि शेखर
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए अदिति शर्मा द्वारा चयनित
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