कामकाजी औरतें

kamakaji aurten

प्रतिभा कटियार

प्रतिभा कटियार

कामकाजी औरतें

प्रतिभा कटियार

और अधिकप्रतिभा कटियार

    कामकाजी औरतें हड़बड़ी में निकलती हैं रोज़ सुबह घर से

    आधे रास्ते में याद आता है

    सिलेंडर नीचे से बंद किया ही नहीं

    उलझन में पड़ जाता है दिमाग़

    कहीं गीजर खुला तो नहीं रह गया

    जल्दी में आधा सैंडविच छूटा रह जाता है टेबल पर

    कितनी ही जल्दी उठें और तेज़ी से निपटाएँ काम

    ऑफ़िस पहुँचने में देर हो ही जाती है

    खिसियाई हँसी के साथ बैठती हैं अपनी सीट पर

    बॉस के बुलावे पर सिहर जाती हैं

    सिहरन को मुस्कुराहट में छुपाकर

    नाख़ूनों में फँसे आटे को निकालते हुए

    अटेंड करती हैं मीटिंग

    काम करती हैं पूरी लगन से

    पूछना नहीं भूलतीं बच्चों का हाल

    सास की दवाई के बारे में

    उनके पास नहीं होता वक़्त

    पान, सिगरेट या चाय के लिए

    बाहर जाने का

    उस वक़्त में वे जल्दी-जल्दी निपटाती हैं काम

    ताकि समय से काम ख़त्म करके घर के लिए निकल सकें।

    दिमाग़ में चल रही होती सामान की लिस्ट

    जो लेते हुए जाना है घर

    दवाइयाँ, दूध, फल, राशन

    ऑफ़िस से निकलने को होती ही हैं कि

    तय हो जाती है कोई मीटिंग

    जैसे देह से निचुड़ जाती है ऊर्जा

    बच्चे की मनुहार जल्दी आने की

    रुलाई बन फूटती है वाशरूम में

    मुँह धोकर, लेकर गहरी साँस

    शामिल होती है मीटिंग में

    नज़र लगातार होती है घड़ी पर

    और ज़ेहन में होती है बच्चे की गुस्से वाली सूरत

    साइलेंट मोड में पड़े फ़ोन पर

    आती रहती हैं ढेर सारी कॉल्स

    दिल कड़ा करके वो ध्यान लगाती हैं मीटिंग में

    घर पहुँचती सामान से लदी-फंदी

    देर होने के संकोच और अपराधबोध के साथ

    शिकायतों का अंबार खड़ा मिलता है घर पर

    जल्दी-जल्दी फैले हुए घर को समेटते हुए

    सबकी ज़रूरत का सामान देते हुए

    करती हैं डैमेज़ कंट्रोल

    मन घबराया हुआ होता है कि कैसे बताएँगी घर पर

    टूर पर जाने की बात

    कैसे मनाएँगी सबको

    कैसे संभलेगा उनके बिना घर

    ऑफ़िस में सोचती हैं कैसे मना करेगी

    कि नहीं जा सकेंगी इस बार

    कितनी बार कहेंगी घर की समस्या की बात

    कामकाजी औरतें सुबह ढेर सा काम करके जाती हैं घर से

    कि शाम को आराम मिलेगा

    रात को ढेर सारा काम करती हैं सोने से पहले

    कि सुबह हड़बड़ी हो

    ऑफ़िस में तेज़ी से काम करती हैं कि घर समय पर पहुँचें

    घर पर तेज़ी से काम करती हैं कि ऑफ़िस समय से पहुँचें

    हर जगह सिर्फ़ काम को जल्दी से निपटाने की हड़बड़ी में

    एक रोज़ मुस्कुरा देती हैं आईने में झाँकते सफ़ेद बालों को देख

    किसी मशीन में तब्दील हो चुकी कामकाजी औरतों से

    कहीं कोई ख़ुश नहीं घर में, दफ़्तर में मोहल्ले में

    वो ख़ुद भी ख़ुश नहीं होतीं ख़ुद से

    'मुझसे कुछ ठीक से नहीं होता के'

    अपराधबोध से भरी कामकाजी औरतें

    भरभराकर गिर पड़ती हैं किसी रोज़

    और तब उनके साथी कहते हैं

    'ऐसा भी क्या ख़ास करती हो जो इतना ड्रामा कर रही हो।'

    मशीन में बदल चुकी कामकाजी औरतें

    एक रोज़ तमाम तोहमतों से बेज़ार होकर

    जीना शुरू कर देती हैं

    थोड़ा सा अपने लिए भी

    और तब लड़खड़ाने लगते हैं तमाम

    सामाजिक समीकरण।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रतिभा कटियार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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