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कलकत्ता गेला उत्तर

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हरिमोहन झा

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हरिमोहन झा

कलकत्ता गेला उत्तर

हरिमोहन झा

और अधिकहरिमोहन झा

    (1)

    मिथिलाक भूमि सँ समुत्पन्न

    मिथिलाक पानि सँ परिष्पन्न

    ऋषि याज्ञवल्क्य जनक केर

    उज्ज्वल संस्कृति सौं अविच्छिन्न

    हे प्रखर बुद्धि प्रतिभाक पुञ्ज

    कण-कण ज्योतिक उड़इत स्फुलिंग

    हे तपोभूमि मिथिलाक पुत्र

    सादर सभक्ति शतशत प्रणाम

    हे लक्ष-लक्ष मैथिल प्रणाम

    (2)

    जनकक ब्रह्म-ज्ञान धन्य

    मंडन केर कर्म-ज्ञान धन्य

    वाचस्पतिक तत्त्व-ज्ञान धन्य

    उदयन केर आस्तिकवाद धन्य

    गंगेशक नव्य न्याय धन्य

    पक्षधरक शास्त्रार्थ धन्य

    संतोष अयाची केर धन्य

    विद्यापति कवि केर गान धन्य

    राजा शिवसिंहक दान धन्य

    गंगानाथक सत्कीर्त्ति धन्य

    अमरनाथ केर नाम धन्य

    (3)

    सीता सन मैथिल नारि धन्य

    मैत्रेयी सन विदुषी अनन्य

    विदुषी सरस्वती धन्य अमर

    लखिमा ठकुराइन सेहो हमर

    (4)

    सभटा वैभव अहिंक थीक

    अछि उत्तराधिकार सभटा अहींक

    एक स्वर सँ बाजय तुरही

    थीक परम अभिलाष हमर

    बनि जाय एक लाख हमर

    संग चलय पैर दू लाख हमर

    संग उठय भुजा लाख हमर

    (5)

    गौतम केर गौतमस्थान धन्य

    कपिलक कपिलेश्वर स्थान धन्य

    उदयन केर करियन ग्राम धन्य

    विद्यापतिक विसफी गाम धन्य

    सभकेर बटोरि कय माटि पुण्य

    करइत जाऊ चन्दन ललाम

    हे तपोभूमि मिथिलाक पुत्र

    सादर सभक्ति शतशत प्रणाम

    (6)

    तिरहुतक पुरातन पाग धन्य

    सरिसव केर पटुआ साग धन्य

    अपना देशक छाँछ धन्य

    नैनी माड़ुर माछ धन्य

    मिथिला केर मधुर मखान धन्य

    तुलसीफूलक धान धन्य

    समदाउनि केर गान धन्य

    तरुणी केर मुसकान धन्य

    महादेव केर ध्यान धन्य

    (7)

    समय भयंकर महाकाल

    अति भीषण संकटक कराल

    गिड़बा लय मानव-संस्कृति केँ

    मुँह बौने जेना महाकाल

    अणुबम केर एहि राक्षस युगमे

    हर हर बम केर करु महोच्चार

    पुनि दियौ जगतकेँ महामंत्र

    पुनि करू शान्ति-पाठक प्रचार

    मिथिलाक सत्व गुण घोरि घोरि

    उन्मत्त विश्व मे दियऽ खिरा

    भौतिकवादक भस्मासुर केँ

    निज माथ, हाथ दय दियौ फिरा

    हे बन्धु हमर अहिंक काज

    दुदुन्भी बजाउ मैथिल समाज

    पद्माक पानि मे चमकि उठय

    कमलाक धार कर शान हमर

    आङन रविन्द्र केर आबि गुँजय

    विद्यापति केर चिर कलगान हमर

    एहि नवद्वीप मे पुनः उठय

    पक्षधरक सम्मान हमर

    हे बन्धु भार अछि अहींक

    दायित्व सकल अपनेक थीक

    बुझू रहू बनि सदा एक

    मिथिला मैथिलि केर राखि टेक

    हे बंगभूमि मे रहनिहार

    कलकत्ता नगरी स्थित प्रबुद्ध

    छितरल फुटकल मिथिलाक पुत्र

    समवेत होउ बनि कय उदार

    मन्दिर बनाउ निज एहन दिव्य

    फहराउ ध्वजा अतिशय विशाल

    आदर्श उच्च विचारक, करू

    सम्मिलित कण्ठ सौं शंखनाद

    हे तपोभूमि मिथिलाक पुत्र

    सादर सभक्ति शत शत प्रणाम

    हे लक्ष लक्ष मैथिल प्रणाम

    स्रोत :
    • पुस्तक : हरिमोहन झा रचनावली खण्ड-4 (पृष्ठ 52)
    • रचनाकार : हरिमोहन झा
    • प्रकाशन : जनसीदन प्रकाशन
    • संस्करण : 1999

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