काल की शिला पर शयन करती हुई
kaal ki shila par shayan karti hui
दुःख की कोई विशिष्ट वाणी नहीं होती
वह एक अविरत, निःशब्द तरंग है,
जो अंत:करण की किसी अज्ञेय कक्षा से
उद्भूत होकर
जीवन की उपेक्षित नीरवताओं में
स्वतः ही अंतर्भूत हो जाती है।
वह किसी भाषा के विधान में सीमित नहीं,
न किसी लिपि में अंकित की जा सकने वाली अनुभूति है।
तुम दृश्यपटल पर उपस्थित न थे,
परंतु विचार-सरणियों की प्रत्येक गूढ़ परिक्रमा में,
प्रशांति के प्रत्येक विखंडित क्षण में,
तुम स्वप्नवत् विद्यमान थे
एक ऐसी आकांक्षा के रूप में,
जो फलीभूत होने से पूर्व ही छिन्न हो गई,
एक अमूर्त कल्पना की भाँति,
जो सदा आलिंगन के क्षण से दूर रही।
निशा की गहन निस्तब्धता में
कोई भी तत्त्व अपरिवर्तनशील नहीं रहता।
काल,
जो स्वयं परिवर्तन का पर्याय है,
मूक गति से अपने स्वरूप को परिवर्तित करता रहा
और हम
ज्योतिष्कीय विवेक होते हुए भी,
विरक्ति के अंधकार में
अनभिज्ञ भाव से देखते रहे कि
कैसे कुछ संबंध,
कुछ मधुर स्मृतियाँ,
काल की शिला पर शयन करती हुई,
मृत्यु की शांति में विलीन हो गईं।
- रचनाकार : शैरिल शर्मा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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