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जब जीवन बीत जाता है

jab jivan beet jata hai

आन येदरलुंड

अन्य

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आन येदरलुंड

जब जीवन बीत जाता है

आन येदरलुंड

और अधिकआन येदरलुंड

    जब जीवन बीत जाता है।

    भारी बोझ से लदा हर शरीर वास्तविक शरीर से ख़ुद को

    अलग कर लेता है

    और दूसरे के भीतर उतरता है। कोई नहीं जानता कि यह कहाँ

    से शुरू होता है।

    शायद यह उसी सतह पर हर समय अपना पुनर्वितरण करता

    रहता हो—

    सतहवार बिना किसी तापमान के।

    अगर सतहें उपस्थित हैं तो भी संभवतः वे कुछ भी नहीं

    बचातीं।

    उपस्थित नहीं अपने अस्तित्व में जहाँ कोई है। किसी पीड़ा को

    कम नहीं करती।

    संवेदना का पता तक नहीं ढूँढ़ती।

    क्या वह उपस्थित भी है गहराइयों में?

    जैसी वे हैं? झिरझिरी-सी भी?

    जैसे छायाओं में किनारे?

    स्रोत :
    • पुस्तक : सदानीरा पत्रिका
    • संपादक : अविनाश मिश्र
    • रचनाकार : आन येदरलुंड

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