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भूत-प्रेत

bhoot pret

अनुवाद : मदनलाल मधु

अलेक्सांद्र पूश्किन

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और अधिकअलेक्सांद्र पूश्किन

    उमड़ें बादल, घुमड़ें बादल

    रजनी धुँधली, नभ धुँधला,

    उड़ते हिम को कुछ चमकाती

    धुँधली-धुँधली चंद्रकला।

    घोड़ा-गाड़ी दौड़ी जाती

    घंटी बजती है टन-टन

    इन अनजाने मैदानों में

    काँप-काँप उठता है मन!

    “वाहक, घोड़े तेज़ करो तुम

    साहब, इनमें शक्ति नहीं,

    आँखें हिम से मुंदती मेरी

    मार्ग दिखता मुझे कहीं,

    मैं बेबस हूँ, हम पथ भटके

    नहीं समझ में कुछ आता,

    लगता कोई भूत-प्रेत ही

    हमें सताता, भटकाता।

    “वह देखो, वह करे तमाशे

    फूँक मार, थूके मुझ पर,

    जहाँ खड्ड, बिदका घोड़े को

    ले जाता है वही उधर,

    वह पथ का खंभा विशाल बन

    क्षण भर को सम्मुख आया,

    चिंगारी-सा चमका, तम में

    लुप्त हुआ बनकर छाया।

    उमड़ें बादल, घुमड़ें बादल

    रजनी धुँधली, नभ धुँधला,

    उड़ते हिम को कुछ चमकाती

    धुँधली-धुँधली चंद्रकला।

    चक्कर काट-काट हम हारे

    बंद हुआ घंटी का स्वर,

    घोड़े रुके...“वहाँ क्या सम्मुख?”

    कौन कहे, वह ठूँठ, भेड़िया?

    काम करती ज़रा नज़र।

    खीझे, रोये वात-बवंडर

    घोड़े नथुने फिरकाएँ,

    भूत भागता, तम में उसके

    जलते नयन नज़र आएँ,

    घोड़े फिर से लगे दौड़ने

    घंटी टन-टन बजती है,

    लगता यह विस्तार बर्फ़ का

    बस, भूतों की बस्ती है।

    क्षीण चाँदनी में चंदा की

    वे सब चीख़ें-चिल्लाएँ,

    पतझर के उडते पत्तों सम

    भूत-प्रेत चक्कर खाएँ...

    बेहिसाब वे! किधर जा रहे?

    करुण स्वरों में क्यों गाते?

    शादी करने को चुड़ैल की

    भुतना दफ़नाने जाते?

    उमड़ें बादल, घुमड़ें बादल

    रजनी धुँधली, नभ धुँधला,

    उड़ते हिम को कुछ चमकाती

    धुँधली-धुँधली चंद्रकला।

    दल के दल भूतों के उड़ते

    नभ जैसी ऊँचाई पर,

    अपनी दर्दभरी चीख़ों से

    चीर रहे मेरा अंतर

    स्रोत :
    • पुस्तक : अलेक्सान्द्र पूश्किन चुनी हुई रचनाएँ (खंड-1) (पृष्ठ 32)
    • रचनाकार : अलेक्सान्द्र पूश्किन
    • प्रकाशन : प्रगति प्रकाशन, मास्को
    • संस्करण : 1982

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