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इक्कीसवीं शताब्दी के लोगों का गीत

ikkisvin shatabdi ke logon ka geet

हसन दिनाम

हसन दिनाम

इक्कीसवीं शताब्दी के लोगों का गीत

हसन दिनाम

और अधिकहसन दिनाम

    मैं तुम्हारा गीत गाता हूँ

    इक्कीसवीं शताब्दी के लोगो!

    तुम धरती पर इस तरह चलोगे

    जैसे कोई शाहज़ादा अपने बाग़ में टहले!

    और तुम्हारे व्यक्तित्व पर आनंद

    इस तरह छाया रहेगा, जैसे

    इत्र में बसे हुए स्वच्छ कपड़े।

    तब युद्ध होंगे

    संघर्षों का नाम-निशान होगा,

    इंसान की पलकों में आँसू आएँगे

    मगर सिर्फ़ प्यार के बाद, या किसी की मौत के बाद।

    इक्कीसवीं शताब्दी के लोगो

    तुम (यानी भविष्य) मुझमें से प्रवाहित हो रहे हो

    मेरी नसों में तुम्हारी पगध्वनियाँ अनोखी लगती हैं!

    इन सुनसान सड़कों पर

    रोटी तोड़ते हुए

    और सितारों की ओर देखते हुए

    तुम आँसू नहीं बहाओगे

    तुम्हारी रेशमी पोशाक सूरज की रोशनी की तरह

    सुलभ होगी

    शांतिमयी धरती के बच्चो,

    तुम्हारी ज़िंदगी में बंदूक़ें होंगी

    राइफ़िलें

    घृणा

    ग़रीबी!

    क्या मैं उन दिनों को देखने के लिए

    ज़िंदा रहूँगा?

    क्या मैं तुम्हारे कंधे से कंधा लगाकर

    भविष्य के उन शानदार राजमार्गों पर

    चल सकूँगा?

    क्या चाँद, सितारे और बादल

    मुझे भी उतने ही नए लगेंगे, जितने कि तुम्हें?

    मेरे अपरिचित उत्तराधिकारियो

    क्या मैं अपने हाथों में तुम्हारा हाथ ले सकूँगा?

    कितनी गर्म ज़िंदगी होगी उन हाथों में

    जिनको दु:ख और अभावों ने कभी नहीं छुआ है

    आने वाले युग!

    तुम्हारा ख़्याल आते ही मैं

    पंछी की तरह पाँखें खोलकर आस्मानों को नापने

    उड़ चलता हूँ!

    मैं जानता हूँ कि इस दुनिया में

    महान् गीत गाए जाएँगे

    जब तुम्हारे गीत की पहली कड़ी

    गाई जाएगी

    तब शायद मेरी हड्डियाँ भी धरती में

    गल चुकीं होंगी

    मेरे समकालीनों की तरह

    शायद तुम भी मेरे गीतों को नापसंद करोगे

    लेकिन इससे क्या होता है?

    तुम्हारे जीवन में तो सौंदर्य जगमगाएगा

    तुम पर तो असीम शांति की छाया होगी

    तुम तो सुखी रहोगे

    बस!

    स्रोत :
    • पुस्तक : देशान्तर (पृष्ठ 254)
    • संपादक : धर्मवीर भारती
    • रचनाकार : हसन दिनाम
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
    • संस्करण : 1960

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