ईश्वर अगर मैंने अरबी में प्रार्थना की

ishwar agar mainne arbi mein pararthna ki

शमशेर बहादुर सिंह

शमशेर बहादुर सिंह

ईश्वर अगर मैंने अरबी में प्रार्थना की

शमशेर बहादुर सिंह

और अधिकशमशेर बहादुर सिंह

    ईश्वर अगर मैंने अरबी में

    प्रार्थना की तू मुझसे

    नाराज़ हो जाएगा?

    अल्लमह यदि मैंने संस्कृत में

    संध्या कर ली तो तू

    मुझे दोज़ख़ में डालेगा?

    लोग तो यही कहते घूम रहे हैं।

    तू बता, ईश्वर!

    तू ही समझा, मेरे अल्लाह!

    बहुत-सी प्रार्थनाएँ हैं

    मुझे बहुत-बहुत

    मोहती हैं।

    ऐसा क्यों नहीं है कि

    एक ही प्रार्थना मैं

    दिल से क़ुबूल कर लूँ

    और अन्य प्रार्थनाओं को

    करने पर प्रायश्चित

    करने का संकल्प करूँ!

    क्योंकि तब मैं अधिक

    धार्मिक अपने को महसूस

    करूँगा, इसमें कोई संदेह

    नहीं है।

    सब यही कहते हैं

    (मुझसे नहीं... उससे

    भी अधिक उच्च घोषणा में

    जो कि उनके कर्मों में

    प्रसारित होती है।)

    मैं चाहता हूँ उनके प्रचार

    प्रसार से अभिभूत होना

    क्योंकि अन्यथा मैं अपने को

    अति ही अति ही

    अति ही प्राचीन और

    दक़ियानूसी महसूस करता

    हूँ मानो मैं धर्म

    और ईश्वर का

    प्रारंभिक अर्थ नहीं

    जानता।

    हे मेरे ईश्वर, हे मेरे

    अल्ला, मुझे

    क्षमा करना! अफ़्व!

    अफ़्व!

    तुम दोनों ही मिल कर

    मेरा अंत कर दो

    बेहतर है। वह

    शांति जो आज

    होने में है—

    ''न होता मैं तो क्या होता...!

    था मैं तो ख़ुदा था

    कुछ होता तो ख़ुदा होता!

    डुबोया मुझको होने ने

    होता मैं तो क्या होता!''

    x x x

    x x x

    आज वो नहीं है जो सुना

    और कंठस्थ किया जाता है!

    छपे काव्य में। लिपि संबंधी

    दंगे

    संस्कृति

    बनने लगते हैं

    जिसका शोध मेरे लिए दुरूहतम

    साहित्य है

    जन्म भर की आस्था के

    बावजूद।

    यह कविता नहीं मात्र

    मेरी डायरी है

    (अपनी मौलिक स्थिति में

    छपाने की चीज़ नहीं

    अपने से बातचीत है मात्र...

    अपने मन के होंठों के स्वर

    मन के कानों के लिए

    अपने केवल मात्र...)

    मनीषियो आलिमो

    आचार्यो प्राचार्यो

    अपना गहन अमूल्य समय

    इन पंक्तियों को देना यदि भूले से

    इन्हें पढ़ने लगे हो

    यहीं से इन्हें छोड़ देना।

    ...तो मैं कह रहा था

    स्रोत :
    • पुस्तक : टूटी हुई, बिखरी हुई (पृष्ठ 92)
    • संपादक : अशोक वाजपेयी
    • रचनाकार : शमशेर बहादुर सिंह
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 2004

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