हम माटी के लौंदा
hum mati ke launda
चूप चाप पहर रात गए
गहन अँधकार में
बयान दर्ज़ कराता
गाँव का टीला
बुक्का फार कर रो पड़ा—
'रहने दो डीह राज
दो बारा वह दर्द न छेड़ो
जो बीत गया सो बीत गया
कलेजा मुँह को आ जाता है…'
डीहराज बोले— 'कायरता नहीं
जानते हो तुम कि
फ़कत माटी का ढूह नहीं हो तुम
सरहद के कोतवाल हो
गाँव की पूजा खाते हो…'
पूजा खाते हो वाली बात लग गई—
टीले ने हाँथ जोड़ दिया—
'डीहराज माफ़ करें—
गाँव बदल गया है
मेरा अस्तित्व दाव पर है
अबकी असाढ़ में बलराम
मेरा आधा हिस्सा खेत में ले लेगा
अब कहाँ की और कैसी कोतवाली
मेरी छोड़िए डीहराज अपनी ही देखिए
दस साल पहले आपका थाना
फैला था पाँच बीगहे में
तीन बीगहे तो सौवरू ने कब का खेत में ले लिया
हो सकता है
दो तीन साल बाद न हम रहे न हमारी आत्मा…'
डीह राज चिंतित हो गए
नेत्र कोटर पोछते बोले—
'टीले बात तो सही कह रहे हो
हम कल की नही आज की बात कर रहे हैं
अपनी नहीं उस रात का बयान दो
जब तक हैं कर्तव्य पूरा करना होगा…'
'ठीक कहते हैं डीहराज
बयान सुन लें
ज़्यादा अबेर नही हुई थी
अलगू की पतोहू धनिया
गेहूँ का बोछा
लिए खलिहान जा रही थी
खलिहान खेत से दूर था
रोज की तरह गुनगुनाती धनिया
छेंक ली गई मुझसे थोड़ी दूरी पर
मैं भरोसे में था
कुछ नही होगा, देवस्थान का भय
कुछ भी करने से रोक देगा लवंडो को
चारो लवंडे बचपन में बाप संग
दीपावली पर दिया जलाने
धान की रोपाई पूरी होने पर
गूड़ चना चढ़ाने आते थे
मैं ग़लत साबित हुआ
धनिया घेर ली गई ऐन मेरी नाक के नीचे
कपड़े उतार लिए गए
केला के पेड़ की तरह काँपती रही धनिया
गूहार के लिए चिल्लाती रही
डीहराज लौडों ने मेरी छाती पर ही उसे पटक दिया
इसी छाती पर लूटी ली गई वह
देखिए यह लाल रंग सेंहूर नही
ख़ून है उसके अंग का
यह खरोंच उसकी भिची मूट्ठियों की है...'
छाती देखता टीला बोला
डीहराज की नज़रें नीची हो गईं
आँसू बहने लगे
'आगे क्या हुआ कोतवाल?'
'डीहराज गाली मत दें
कोतवाल में पोरुष होता तो
बाल दिए गए होते लौंडे
खेल किस्सा निकला है तो पूरा सुनिए
केले के गाँछ-सी रात के दूसरे पहर तक
पड़ी रही धनिया मेरी ही छाती पर
चाँद तारों से भरा आकाश
चमक रहा था चाँद आगे बढ़ रहा था
ठँडी हवा चल रही थी
धनिया बेसुध पड़ी थी
भोर होते होते जागी और गिरते पड़ते
आगे बढ़ने लगी छोटकान टोला की तरफ़
मैंने सोचा घर जा रही है
शांति मिली ऑंखें बंद हो गई
तभी बड़का कुआँ के पास
धड़ाम सी आवाज़ हुई
आँखें खुल गईं, चारो लौडे भाग जा रहे थे
धनिया नही दिखी, सुबह उसकी लाश कुवें में
उतराई हुई थी,
बस यह कथा थी…'
डीहराज संशय में
कहें तो क्या कहें
किस मुँह से कहें
दोषी अकेला कोतवाल ही नहीं
वे भी हैं, चूक उनसे भी हुई है
दशों दिशाएँ ख़ामोश थीं
पवन भी थम गया
चाँद तारे सहित ठमक गया
अनंत ऊँचाई वाला आकाश भी
टीला गर्दन झुकाए खड़ा था
धरती में गड़ी आखें रो रही थीं
डीहराज बोले—
'कोतवाल जूग बदल गया है
लोग बदल गए हैं
हम तो पहले भी कुछ न थे
आज भी कुछ नही हैं
था तो एक भरम देवता होने का
आदमीयत थी तो हम देवता थे
अब वह नहीं तो काहे के देवता
अब हमारी ज़रूरत नहीं
चलो कूच करते हैं यहाँ से…'
छोट भैए देवताओं सहीत डीहराज
प्रस्थान कूच कर गए
डीठ लगी कुछ पिंडियाँ बची रह गईं…
- रचनाकार : जनार्दन
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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