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हरा बेंच

hara bench

श्रेया शिवमूर्ति

और अधिकश्रेया शिवमूर्ति

    पत्थरों के ऊँचे-ऊँचे ढाँचों पर खड़ी सोसाइटी के बीच एक छोटा-सा पार्क है

    हरियारी काम लेकिन हरियाली पर लिखे गए स्लोगन ज़्यादा है

    हर चार क़दम पर एक हरा बेंच लगा है

    कुछ हरे कुछ मुरझाये पेड़-पौधों के बीच

    कुछ सूखी और कुछ हरी घास को अपने पैरों में जकड़े

    हरे बेंच ही उस पार्क में ज़्यादा हरे-भरे हैं

    हर-चमकीले

    हर दो से तीन महीने में बेंच के साथ-साथ पार्क के झूले, गेट

    और यहाँ तक कि चहारदीवारी की दीवार और सलाखों पर भी पेंट किया जाता है

    हरे बेंच पर लोग आराम करते हैं

    थकान दूर करते हैं…यहाँ तक की स्मिरीतियाँ भी बनाते हैं

    यहाँ हरे बेंच की प्रासंगिकता से इंकार नहीं किया जा सकता है

    लेकिन शायद हम ये भूल जाते हैं की

    हरे पेंट से चमकते हरे-भरे पेड़-पौधे

    जिनकी छाँव में हरी घास पर भी बैठा जा सकता है

    हरे बेंच से ज़्यादा ज़रूरी है हरियाली

    लोग भूल जाते हैं बाहरी रंग-रोगन से नहीं

    पार्क ज़िंदा रहते हैं वहाँ लगे पेड़-पौधों की हरियाली से,

    पक्षियों के चहचहाट से, गिलहरियों की आहट से

    बेंच हरा हो या पीला, लाल, या मटमैला क्या फ़र्क़ पड़ता है

    हरा रंग बेंच पर बैठने वाले लोगों को जीवनदायी ऑक्सीजन नहीं दे सकता

    वो सिर्फ़ हरे पेड़-पौधों से मिलती है जो उस पार्क में के बराबर है

    हरा बेंच लोगों की राह देखता है

    बिना हरियाली के कड़ी धूप में अकेला खड़ा रहता है

    स्रोत :
    • रचनाकार : श्रेया शिवमूर्ति
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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