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हमारे बाग़ में अनार का दरख़्त नहीं था

hamare baagh mein anar ka darakht nahin tha

अनुवाद : निशांत कौशिक

शुकरु एरबाश

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शुकरु एरबाश

हमारे बाग़ में अनार का दरख़्त नहीं था

शुकरु एरबाश

और अधिकशुकरु एरबाश

    वहाँ एक भूतिया मिल थी

    गेहूँ की नाज़ुक बालियाँ, दुआ, इंतिज़ार

    हवा से अछूती रही आईं पानी की उँगलियाँ

    पसीनामय आकाश, ऊब, कठिन समय

    अपने ही भीतर ग़ुर्राता इंसान

    अपनी तरबियत से अनजान बच्चे

    गर्मीले बाग़ वाली स्कर्ट पहनी एक औरत

    वहाँ थी दयनीय ग़रीबी

    सुरमयी रातें, धुँधली सुबहें

    सूरज संग खिलती थकन

    चाँदनी में घुलते शब्द

    मैदान जहाँ घोड़ों और कुत्तों में गुफ़्तगू होती थी

    सितारे निकलने से पहले दिखने वाला आसमान

    ताँबे की देग़ों में गलते घर

    वहाँ परिकथाओं का उत्साह था

    दूरियों में डूबा एक छोटा रेडियो

    अँगूरों से भरी ठेलागाड़ी, सेव वाले गुनाह, नम-स्वप्न

    क़ब्रों पर पी जाने वाली एक ला-तमाम सिगरेट

    ज़र्दरंगी परों वाली पड़ोसी खिड़कियाँ

    काकुलों से अपनी माँओं को ढाँपी लड़कियाँ

    दूर के रिश्तेदारों का लाया हुआ अकेलापन

    मेरी जान, मेरी गुलगर्दनी चिड़िया, मेरी बुलबुल

    दो आसमानों जैसी तुम्हारी आँखें

    हमारे प्रणयबद्ध समय में

    तुमने पूछा था मेरे रोने का सबब

    हमारे बाग़ में अनार का दरख़्त नहीं था

    तुम्हारा मुँह नहीं था जब उधड़ी थीं हमारी देह

    ख़्वाहिशें जो उठी थीं हमारी भौंहों से,

    ख़त्म हुई थीं पलकों की बरौनियों पर हमारी

    नहीं रो रहा था मैं

    मैं अपने अतीत को प्यार कर रहा था

    मैं तुम्हारे भविष्य को प्यार कर रहा था

    स्रोत :
    • पुस्तक : सदानीरा पत्रिका
    • संपादक : अविनाश मिश्र
    • रचनाकार : शुकरु एरबाश

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